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कुलार्णवतन्त्र उल्लास २

कुलार्णवतन्त्र उल्लास २  

कुलार्णवतन्त्र उल्लास २ में कुलमाहात्म्यकथन अंतर्गत् कुलाचार की श्रेष्ठता का क्रम, देवता भी कुलधर्मपरायण, पूर्वजन्म के अभ्यास से कुलधर्म का ज्ञान, कुलधर्म के ज्ञान के अधिकारी, अनधिकारी को कुलधर्म बताने का दोष, कुल धर्म की महिमा, कुल (शक्ति देवी) की उपासना से सद्गति, कुलधर्म को न जानने वाला सदा पशु के समान, कुलधर्म के पालन करने वाले ही वास्तविक मनुष्य, कुल को न जाननेवाला वेदज्ञ चाण्डाल से भी अधम देवीभक्त ही कुलज्ञ, छः दर्शन का शिवशक्तिमयत्व एवं वेदात्मक शास्त्र का कौलात्मकत्व, प्रत्यक्ष फल देने से कुलशास्त्र की प्रामाणिकता, संसार की रक्षा हेतु कुलधर्म की निन्दा, पापियों के लिए कुल ज्ञान नहीं है, दुरात्माओं को भ्रमित करने के लिए ही पशुशास्त्रों का प्रचार, कुलधर्म से देवताओं को देवत्व – प्राप्ति, मिथ्या ज्ञानियों द्वारा कुलधर्म की विडम्बना, वेदादि में वृथा-पान की निन्दा, द्विजातियों के लिये ग्यारह मद्य अग्राह्य, सुरा के देखने आदि का प्रायश्चित्त, वृथा हिंसा करने में दोष, आठ प्रकार के पशु-हिंसक, तीन प्रकार के वध, विधिपूर्वक ही पश्चमकार सेवनीय, कुल-धर्म के अनुकूल श्रुति के प्रमाण का वर्णन है।

कुलार्णवतन्त्र उल्लास २

कुलार्णवतन्त्र द्वितीय उल्लास

Kularnava Tantra Ullas  2

कुलार्णवतन्त्रम् द्वितीयोल्लास: कुलमाहात्म्यकथनम्

कुलार्णवतन्त्र उल्लास २   

कुलार्णवतन्त्र दूसरा उल्लास

कुलार्णवतन्त्रम्

अथ द्वितीयोल्लासः

श्रीदेव्युवाच

कुलेश श्रोतुमिच्छामि सर्वजीवदयानिधे ।

कुलधर्मस्त्वया देव सूचितो न प्रकाशितः ॥ १ ॥

श्री देवी ने पूछाहे कुलेश ! हे सभी जीवों पर दया करने वाले ! आपने कुलधर्म के सम्बन्ध में तो बताया, किन्तु उस पर प्रकाश नहीं डाला । उसे मैं सुनना चाहती हूँ ॥ १ ॥

धर्म का माहात्म्य

तस्य धर्मस्य माहात्म्यं सर्वधर्मोत्तमस्य च ।

ऊर्ध्वाम्नायस्य माहात्म्यं तन्मतं वद मे प्रभो ।

वद मे परमेशान यदि तेऽस्ति कृपा मयि ॥ २ ॥

हे प्रभो ! उस सर्वधर्मोत्तम धर्म को और उसके माहात्म्य तथा ऊर्ध्वाम्नाय के माहात्म्य एवं उस सम्प्रदाय को बताने की कृपा करें । हे परमेशान ! यदि आपकी मेरे ऊपर कृपा हो तो उनके सिद्धान्तों को मुझसे कहिए ।। २ ॥

श्री ईश्वर उवाच

शृणु देवि प्रवक्ष्यामि यन्मां त्वं परिपृच्छसि ।

तस्य श्रवणमात्रेण योगिनीनां प्रियो भवेत् ॥ ३ ॥

ईश्वर ने कहाहे देवि ! सुनिए, जो आप पूछती हैं, उसे मैं कहूँगा । जिसके श्रवण मात्र से साधक योगिनियों का प्रिय होता है ।। ३ ।।

कुलधर्म और ऊर्ध्वाम्नाय

ब्रह्माविष्णुगुहादीनां न मया कथितं पुरा ।

कथयामि तव स्नेहात् शृणुष्वैकाग्रमानसा ॥ ४ ॥

पहले हमने ब्रह्मा, विष्णु एवं गुह (कार्तिकेय) को भी इसे नहीं बताया है, किन्तु मैं आपके स्नेहवशात् कहता हूँ। अतः एकाग्र मन होकर सुनिए ॥४॥

पारम्पर्य्यक्रमायातं पञ्चवक्त्रेषु संस्थितम् ।

अकथ्यं परमार्थेन तथापि कथयामि ते ।। ५ ।।

परम्परा के क्रम से आने वाला और मेरे पाँच मुखों में स्थित होने वाला वह 'तत्त्व' यद्यपि अकथनीय है, तथापि परमार्थ की दृष्टि से मैं उसे कहता हूँ ॥ ५ ॥

त्वयापि गोपितव्यं हि न देयं यस्य कस्यचित् ।

देयं भक्ताय शिष्याय अन्यथा पतनं भवेत् ॥ ६ ॥

आपको भी इसका गोपन करना चाहिए । जिस किसी को इसे नहीं बताना चाहिए । मात्र भक्त शिष्य को ही यह ज्ञान प्रदान करना चाहिए अन्यथा उस गुरु का पतन होता है ।। ६ ।।

सर्वेभ्यश्चोत्तमा वेदा वेदेभ्यो वैष्णवं परम् ।

वैष्णवादुत्तमं शैवं शैवाद्दक्षिणमुत्तमम् ॥ ७ ॥

दक्षिणादुत्तमं वामं वामात् सिद्धान्तमुत्तमम् ।

सिद्धान्तादुत्तमं कौलं कौलात् परतरं न हि ॥ ८ ॥

कुलाचार की श्रेष्ठता का क्रम - सबसे उत्तम वेद हैं, वेदों से उत्तम वैष्णव हैं, वैष्णव से उत्तम शैव, शैव से उत्तम दक्षिण, दक्षिण से उत्तम वाम, वाम से उत्तम सिद्धान्त, सिद्धान्त से उत्तम कौल हैं, किन्तु कौल से उत्तम कोई नहीं है ।। ७-८ ।।

गुह्याद्गुह्यतरं देवि सारात् सारं परात् परम् ।

साक्षात् शिवप्रदं देवि कर्णाकर्णिगतं कुलम् ॥ ९ ॥

हे देवि ! कुलाचार समस्त गुह्य में भी अत्यन्त गुह्य आचार है। सभी सारों का भी सार हैं । उत्तमों में भी उत्तम आचार है । गुरु शिष्य की परम्परा से एक दूसरे से सुनकर गुरुमुख से प्राप्त है । हे देवि ! यह साक्षात् शिवप्रद (कल्याणकारी ) है ॥ ९ ॥

मथित्वा ज्ञानदण्डेन वेदागममहार्णवम् ।

सारज्ञेन मया देवि कुलधर्मः समुद्धृतः ॥ १० ॥

वेद और आगमरूपी महासमुद्र को ज्ञानरूपी मथानी से मथकर हे देवि ! मैंने इस कुलधर्म को प्रकट किया है ।। १० ।।

एकतः सकला धर्मा यज्ञतीर्थव्रतादयः ।

एकत: कुलधर्मश्च तत्र कौलोऽधिकः प्रिये ॥ ११ ॥

हे प्रिये ! एक तरफ सभी धर्म, यज्ञ, तीर्थ एवं व्रत आदि पुण्य आचार हों और एक तरफ मात्र कुल धर्म ही हो तो उनमें से कौलिक आचार मुझे अधिक प्रिय है ॥ ११ ॥

प्रविशन्ति यथा नद्यः समुद्रम् ऋजुवक्रगाः ।

तथैव विविधा धर्माः प्रविष्टाः कुलमेव हि ॥ १२ ॥

टेढ़ी-मेढ़ी, एवं सीधी होकर भी जाने वाली सभी नदियाँ जैसे समुद्र में ही मिल जाती हैं, वैसे ही विविध प्रकार के धर्म भी अन्ततः कुलधर्म में ही विलीन हो जाते हैं ॥ १२ ॥

यथा हस्तिपदे लीनं सर्वप्राणीपदं भवेत् ।

दर्शनानि च सर्वाणि कुल एव तथा प्रिये ॥ १३ ॥

जैसे सभी प्राणियों के पैर हाथी के पैर में समा जाते हैं वैसे ही, हे प्रिये ! सभी दर्शन कुलधर्म में ही समा जाते हैं ॥ १३ ॥

यदा जाम्बुनदानाञ्च सदृशं लौहमस्ति चेत् ।

तदा च कुलधर्मेण समयोऽन्यः समो भवेत् ॥ १४ ॥

जैसे लोहा कभी भी सोने की बराबरी नहीं कर सकता है वैसे ही अन्य कोई भी मत (सिद्धान्त) इस कुल धर्म की बराबरी नहीं कर सकते हैं ॥ १४ ॥

यथामरतरङ्गिण्या न समाः सकलापगाः ।

तथैव समयाः सर्वे कुलधर्मेण नो समाः ॥ १५ ॥

जैसे अन्य नदियाँ कभी भी गङ्गा नहीं बन सकती है उसी प्रकार अन्य मतवाद भी कभी कुलधर्म के समान नहीं बन सकते ।। १५ ।।

मेरुसर्षपयोर्यद्वत् सूर्यखद्योतयोर्यथा ।

तथान्यसमयस्यापि कुलस्य महदन्तरम् ॥ १६ ॥

जैसे मेरु पर्वत और सरसों के दाने में और सूर्य एवं जुगनू कें प्रकाश में बराबरी नहीं है उसी प्रकार अन्य मतवादों और कुलधर्म के बीच कोई तुलना नहीं है किन्तु महान् अन्तर है ॥ १६ ॥

अस्ति चेत्त्वत्समा नारी मत्समः पुरुषोऽस्ति चेत् ।

कुलेन समधर्मस्तु तथापि न कदाचन ॥ १७ ॥

आप (देवि ) के जैसे कोई नारी हो सकती है और मेरे (शिव) जैसा कोई पुरुष भी हो सकता है किन्तु कुल धर्म के समान कोई धर्म नहीं हो सकता ॥ १७ ॥

कुलधर्मं हि मोहेन योऽन्यधर्मेण दुर्मतिः ।

बद्धः संसारपाशेन सोऽन्त्यजानां प्रियो भवेत् ॥ १८ ॥

यदि कोई मूर्ख अज्ञान में पड़कर अन्य धर्म को कुल धर्म से अधिक मान बैठता है तो वह सांसारिक बन्धनों में बंध जाता है और निम्न जाति के लोगों का प्रिय बन जाता है ॥ १८ ॥

यो वा कुलाधिकं धर्ममज्ञानाद्वदति प्रिये ।

ब्रह्महत्याधिकं पापं स प्राप्नोति न संशयः ॥ १९ ॥

हे प्रिये ! जो अज्ञान में पड़कर कुल धर्म से अधिक अन्य धर्मों के विषय में चर्चा करता है तो वह निःसन्देह ब्रह्महत्यादि से भी अधिक पाप को प्राप्त करता है ।। १९ ।।

कुलधर्मप्रवहणं समारुह्य नरोत्तमः ।

स्वर्गादि द्वीपान्तरं गत्वा मोक्षरलं समश्नुते ॥ २० ॥

हे देवि ! कुलधर्म के रथ पर चढ़कर श्रेष्ठ मनुष्य इस लोक को पारकर स्वर्ग को जाता है और मोक्षरूपी रत्न को प्राप्त करता है ।। २० ।।

दर्शनेषु च सर्वेषु चिराभ्यासेन मानवाः ।

मोक्षं लभन्ते कौले तु सद्य एव न संशयः ॥ २१ ॥

सभी अन्य दर्शनों में दीर्घकालीन प्रयास से ही मनुष्यों को मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है किन्तु कौल धर्म में अभ्यस्त साधक शीघ्र ही जीवन्मुक्त हो जाता है इसमें सन्देह नहीं है ।। २१ ।।

बहुनात्र किमुक्तेन शृणु मत्प्राणवल्लभे ।

न कौलसमधर्मोऽस्ति त्वां शपे कुलनायिके ॥ २२ ॥

हे मेरी प्राणवल्लभे ! हे कुलनायिके ! अधिक कहने से क्या लाभ? आप सुन लें कि मैं आपके द्वारा अभिशप्त हूँ कि कुलधर्म से अधिक संसार में कुछ भी नहीं है ।। २२ ।।

योगी चेन्नैव भोगी स्याद्धोगी चेन्नैव योगवित् ।

भोगयोगात्मकं कौलं तस्मात् सर्वाधिकं प्रिये ॥ २३ ॥

भोगयोगात्मक 'कौल'- जो योगी होता है, वह भोगी नहीं होता और जो भोगी होता है, वह योग को नहीं जानता। किन्तु कौल भोग और योग दोनों से युक्त है । अतः हे प्रिये ! वह सबसे श्रेष्ठ है ॥ २३ ॥

विमर्श - हे प्रिये ! साधक कुलाचार में योगी होकर भी सांसारिक भोग का आनन्द लेता है । किसी अन्य आचार में ऐसा नहीं है कि योगी योग में रहकर भोग का आनन्द प्राप्त करे ।

भोगो योगायते साक्षात् पातकं सुकृतायते ।

मोक्षायते च संसारः कुलधर्मे कुलेश्वरि ॥ २४ ॥

हे कुलेश्वरि ! कुलधर्म में भोग ही साक्षात् योग का रूप ले लेता है, पातक सुकृत बन जाता है और संसार मोक्ष का साधन हो जाता है ।। २४ ।।

ब्रह्मेन्द्राच्युतरुद्रादिदेवतामुनिपुङ्गवाः।

कुलधर्मपरा देवि मानुषेषु च का कथा ॥ २५ ॥

देवता भी कुलधर्मपरायण- हे देवि ! ब्रह्मा, इन्द्र, अच्युत, रुद्रादि देवता और श्रेष्ठ मुनि भी कुलधर्म परायण रहे हैं, अतः मनुष्यों की क्या बात है ।। २५ ।।

विहाय सर्वधर्मांश्च नानागुरुमतानि च ।

कुलमेव विजानीयाद्यदीच्छेत् सिद्धिमात्मनः ॥ २६ ॥

अतः यदि आत्मसिद्धि प्राप्त करने की इच्छा हो, तो सभी धर्मों और नाना मतवादों को छोड़कर कुलधर्म का ही ज्ञान प्राप्त करे ।। २६ ।।

पूर्वजन्मकृताभ्यासात् कुलज्ञानं प्रकाशते ।

स्वप्नोत्थित प्रत्ययवदुपदेशादिकं विना ॥ २७ ॥

पूर्वजन्म के अभ्यास से कुलधर्म का ज्ञान- पूर्वजन्मों मे किये गये अभ्यास के फलस्वरूप जीव को कुलधर्म के ज्ञान का प्रकाश स्वतः प्राप्त होता है । यह ज्ञान उपदेश के बिना ही, जैसे स्वप्न में प्राप्त अनुभूतियों से जागकर ज्ञान मिलता है वैसे ही स्वयं प्रतिभासित हो जा है ॥। २७ ॥

जन्मान्तरसहस्त्रेषु या बुद्धिर्विहिता नृणाम् ।

तामेव लभते जन्तुरुपदेशो निरर्थकः ॥ २८ ॥

पिछले सहस्रजन्मों में मनुष्य की जो बुद्धि विकसित होती है, मात्र से जीव को ज्ञान मिलता है, उपदेश की आवश्यकता ही नहीं होती॥२८॥

शैववैष्णवदौर्गार्कगाणपत्येन्दुसम्भवैः ।

मन्त्रैर्विशुद्धचित्तस्य कुलज्ञानं प्रकाशते ॥ २९ ॥

मन्त्र जपादि से शुद्ध चित्त में कुलधर्म के ज्ञान का स्फुरण - शैव, वैष्णव, दुर्गा, सूर्य या गणपति, आदि किसी भी सम्प्रदाय के मन्त्रों से जिसका चित्त विशुद्ध हो चुका है, उसे ही कुलधर्म का ज्ञान होता है ।। २९ ।।

सर्वधर्माश्च देवेशि पुनरावर्त्तकाः स्मृताः ।

कुलधर्मस्थिता ये च ते सर्वेऽप्यनिवर्त्तकाः ॥ ३० ॥

अन्य सभी धर्म तो 'पुनरावर्तक' हैं अर्थात् उनके पालन करने वाले आवागमन के चक्र में पड़े रहते हैं । किन्तु हे देवेशि ! सभी कुलधर्मानुयायी 'अनिवर्तक' अर्थात् आवागमन से मुक्त हो जाते हैं॥३०॥

पुराकृततपोदानयज्ञतीर्थजपव्रतैः।

क्षीणांहसां नृणां देवि कुलज्ञानं प्रकाशते ॥ ३१ ॥

कुलधर्म के ज्ञान के अधिकारी - हे देवि ! पूर्व जन्म में किये हुये तप, दान, यज्ञ तीर्थसेवन, जप, व्रत आदि के द्वारा जिन मनुष्यों के पाप नष्ट हो जाते हैं, उन्हें कुलधर्म का ज्ञान प्राप्त होता है ॥ ३१ ॥

त्वमहं देवि कल्याणि यस्य तुष्टावुभावपि ।

देवतागुरुभक्त्या च कुलज्ञानं प्रकाशते ॥ ३२ ॥

हे देवि ! जिस पर आप ( भगवती ) और हम (शिव) दोनों प्रसन्न होते हैं और हे सभी का कल्याण करने वाली देवि ! जिसे देवता एवं गुरु में भक्ति है, उसे कुलधर्म का ज्ञान होता है ॥ ३२ ॥

शुद्धचित्तस्य शान्तस्य कर्मिणो गुरुसेविनः ।

अतिभक्तस्य गुह्यस्य कुलज्ञानं प्रकाशते ॥ ३३ ॥

शुद्धचित्त, शान्त, कर्मशील, गुरु की सेवा में परायण और परम भक्त तथा गुह्य साधक को कुल का ज्ञान होता है ॥ ३३ ॥

श्रीगुरौ कुलशास्त्रेषु कौलिकेषु कुलाश्रये ।

यस्य भक्तिर्दृढा तस्य कुलज्ञानं प्रकाशते ॥ ३४ ॥

श्री गुरुदेव में, कुलधर्म के शास्त्रों में, कौलिकों में और कौल -परिवारों में जिसकी दृढ़ भक्ति होती है, उसे कुलधर्म का ज्ञान मिलता है ।। ३४ ।।

श्रद्धा विनयहर्षाद्यैः सदाचारदृढव्रतैः ।

गुर्वाज्ञापालकैर्धर्मैः कुलज्ञानमवाप्यते ॥ ३५ ॥

श्रद्धा, नम्रता, हर्ष आदि के साथ सदाचार के नियमों का दृढ़ता से पालन करते हुये जो साधक गुरु की आज्ञा एवं धर्म को मानता है, उसे कुलधर्म का ज्ञान होता है ।। ३५ ।।

अनर्हे कुलविज्ञानं न तिष्ठति कदाचन ।

तस्मात् परीक्ष्य वक्तव्यं कुलज्ञानं मयोदितम् ॥ ३६ ॥

अनधिकारी को कुलधर्म बताने का दोष-अनधिकारी व्यक्ति कुलधर्म के विज्ञान को समझ नहीं सकता । अतः परीक्षा लेकर ही अधिकारी व्यक्ति को मेरे बताए गए कुलधर्म का ज्ञान कराना चाहिये ॥ ३६ ॥

न ब्रूयात् कुलधर्मं तमयोग्ये कुलशासनम् ।

आज्ञा भङ्गञ्च यः कुर्याद्दिवताशापमाप्नुयात् ॥ ३७ ॥

अयोग्य व्यक्ति को कुलधर्म या कुलशास्त्र नहीं बताना चाहिए । इस आज्ञा को भंग करने पर देवता का शाप मिलता है ॥ ३७ ॥

आराध्य समयाचारं कुलज्ञानं वदेद्यदि ।

स गुरुश्चापि शिष्यश्च योगिनीनां भवेत् पशुः ॥ ३८ ॥

समयाचार का पालन करने वाला यदि कुलधर्म का ज्ञान बताता है, तो वह बताने वाला (गुरु ) और उस ज्ञान को प्राप्त करने वाला (शिष्य) दोनों ही योगिनियों के पशु होते हैं अर्थात् उनके द्वारा नाश को प्राप्त होते हैं ॥३८॥

विमर्श - भास्कराचार्य ने सुभगोदय की टीका सौभाग्यभास्कर में श्रीविद्या के उपासक के लिए तीन आचारों का प्रतिपादन किया है । १. समय मत, २. कौल मत और ३. मिश्र मत । समय मत का पालन करने वाला साधक समयाचार शब्द से अभिहित होता है । किन्तु सौन्दर्यलहरी के श्लोक ३१ की लक्ष्मीधरा व्याख्या में लक्ष्मीधर ने समयाचार का अन्य अर्थ भी बताया है ।

बोधयित्वा गुरुः शिष्यं कुलज्ञानं प्रकाशयेत् ।

लभेते तावुभौ साक्षाद्योगिनीवीरमेलनम् ॥ ३९ ॥

कुल धर्म की महिमा - यदि गुरु अधिकारी शिष्य को उद्बोधित कर उसे कुलधर्म का ज्ञान कराये तो इससे दोनों को नित्य योगिनियों और वीरों के साक्षात् सम्मिलन का आनन्द प्राप्त होगा ।। ३९ ॥

विमर्श- योगिनीवीरमेलनम् - शिव और शक्ति का साक्षात् सामरस्य प्राप्त करता है ।

अनायासेन संसारसागरं यस्तितीर्षति ।

कुलधर्ममिमं ज्ञात्वा मुच्यते नात्र संशयः ॥ ४० ॥

जो अनायास ही संसार सागर को पार करना चाहता है, वह इस कुलधर्म को जानकर मुक्ति को प्राप्त करता है इसमें संदेह नहीं ॥ ४० ॥

कुलधर्ममहामार्गगन्ता मुक्तिपुरीं व्रजेत् ।

अचिरान्नात्र सन्देहस्तस्मात् कौलं समाश्रयेत् ॥ ४१ ॥

कुलधर्म के महामार्ग से जाकर अविलम्ब ही मुक्तिपुरी में पहुँचा जाता है, इसमें सन्देह नहीं । अतएव कौल मार्ग का आश्रय ग्रहण करना चाहिये ॥४१॥

कुलशास्त्रमनादृत्य पशुशास्त्राणि योऽभ्यसेत् ।

स्वगृहे पायसं त्यक्त्वा भिक्षामटति पार्वति ॥ ४२ ॥

हे पार्वति ! कुलशास्त्र का अनादर कर जो पशु शास्त्रों ( ? ) का अभ्यास करता है, वह मानों अपने घर की खीर छोड़कर अन्य लोगों से भीख माँगता फिरता है ।। ४२ ।।

विहाय कुलधर्म यः परधर्मपरो भवेत् ।

करस्थं रत्नमुत्सृज्य दूरस्थं काचमीहते ॥ ४३ ॥

कुल धर्म का परित्याग कर जो अन्य धर्म में परायण हो जाता है वह मानों हाथ में रखे रत्न को छोड़कर दूर स्थित काँच की इच्छा करता है ॥४३॥

संत्यज्य कुलमन्त्राणि पशुमन्त्राणि यो जपेत् ।

स धान्यराशिमुत्सृज्य पांसुराशिं जिघृक्षति ॥ ४४ ॥

कुल मन्त्रों को छोड़कर जो अन्य पशु मन्त्रों ( ? ) का जप करता है, वह मानों अन्न के ढेर को छोड़कर भूसे के ढेर की इच्छा करता है ।। ४४ ।

कुलान्वयं समुत्सृज्य योऽन्यमन्वयमीक्षते ।

तडागादिव तृष्णार्त्तो मृगतृष्णां प्रधावति ॥ ४५ ॥

कुल परम्परा को छोड़कर, जो दूसरे परम्परा की इच्छा करता है, वह प्यासा मानों तालाब को छोड़कर मृगतृष्णा के पीछे दौड़ता है ।। ४५ ।।

यथेन्द्राजालजा मायाः क्षणमेव सुखावहाः ।

श्रीकौलादन्यसमयास्तादृशाः कुलनायिके ॥ ४६ ॥

जिस प्रकार इन्द्रजाल से उत्पन्न माया क्षण भर तक ही सुख देती है, उसी प्रकार हे कुलनायिके ! श्री कौल के अतिरिक्त अन्य धर्म (समय) अल्प काल तक ही सुख देते हैं ।। ४६ ।।

कुलधर्ममजानन् यः संसारान्मोक्षमिच्छति ।

पारावारमपारं स पाणिभ्यां तर्त्तुमिच्छति ॥ ४७ ॥

कुल (शक्ति देवी) की उपासना से सद्गति कुलधर्म को बिना जाने हुए जो संसार में मोक्ष पाने की इच्छा करता है, वह मानों अपार सागर को हाथों से तैरकर पार करना चाहता है ॥ ४७ ॥

यो वान्यदर्शनेभ्यश्च भुक्तिं मुक्तिञ्च काङ्क्षति ।

स्वप्नलब्धधनेनैव धनवान् स भवेत्तदा ॥ ४८ ॥

जो दूसरे दर्शनों द्वारा मुक्ति और मुक्ति की कामना करता है, वह मानों स्वप्न में प्राप्त धन से धनी होना चाहता ॥ ४८ ॥

शुक्रजतविभ्रान्तिर्यथा जायेत पार्वति ।

तथान्यसमयेभ्यश्च भुक्तिर्मुक्तिः प्रकाशते ॥ ४९ ॥

हे पार्वति ! जिस प्रकार शुक्ति (सीप) में चाँदी की भ्रान्ति होती है, उसी प्रकार अन्य समयों (धर्मों) में भुक्ति और मुक्ति प्रतिभासित होती हैं ।। ४९ ॥

सर्वकर्मविहीनोऽपि वर्णाश्रमविवर्जितः ।

कुलनिष्ठः कुलेशानि भुक्तिमुक्त्योः स भाजनम् ॥ ५० ॥

हे कुलेशानि ! सब प्रकार के ( नित्य, नैमित्तिक) कर्मों से रहित और वर्ण तथा आश्रम से हीन व्यक्ति भी कुलधर्म में निष्ठा रखकर भुक्ति और मुक्ति का अधिकारी हो जाता है ।। ५० ।।

कुलज्ञानविहीनोऽपि कुलभक्त्याश्रयो भवेत् ।

सोऽपि सद्गतिमाप्नोति किमुतास्य परायणः ॥ ५१ ॥

कुल के ज्ञान से रहित व्यक्ति भी यदि कुल की भक्ति का आश्रय लेता है, तो भी वह सद्गति को प्राप्त करता है । फिर कुलधर्म में परायण व्यक्ति का तो क्या कहना ॥ ५१ ॥

कुलधर्मो हतो हन्ति रक्षितो रक्षति प्रिये ।

पूजितः पूजयत्याशु तस्मात्तं न परित्यजेत् ॥ ५२ ॥

हे प्रिये ! कुलधर्म को नष्ट करने से वह उसका ही नाश करता है और रक्षा करने से वह उसकी रक्षा करता है और पूजा करने से वह शीघ्र ही उसे पूजनीय बनाता है । अतः उस कुलधर्म को नहीं छोड़ना चाहिए ॥ ५२ ॥

निन्दन्तु बान्धवाः सर्वे त्यजन्तु स्त्रीसुतादायः ।

जना हसन्तु मां दृष्ट्वा राजानो दण्डयन्तु वा ॥ ५३ ॥

सेवे सेवे पुनः सेवे त्वामेव परदेवते ।

त्वद्धर्म नैव मुञ्चामि मनोवाक्कायकर्मभिः ॥ ५४ ॥

एवमापद्गतस्यापि यस्य भक्तिः सुनिश्चला ।

स तु सम्पूज्यते देवैरमुत्र स शिवो भवेत् ॥ ५५ ॥

सभी भाई बन्धु चाहे निन्दा करें, स्त्री पुत्रादि चाहे छोड़ दें, लोग मुझे देखकर चाहे हँसी उड़ाएँ या राजा चाहे दण्ड दें, किन्तु हे परदेवते! मैं आपकी बार-बार सेवा ही करता रहूँगा । मन, वचन, शरीर एवं कर्म से मैं आपके धर्म को नहीं छोडूगाँ- इस प्रकार आपत्ति में पड़कर भी जिसकी भक्ति दृढ़ बनी रहती है, वह देवताओं के द्वारा पूजित होकर शिवत्व को प्राप्त करता है ॥५३-५५॥

रोगदारिद्र्यदुःखाद्यैः पीडितोऽप्यनिशं शिवे ।

यस्त्वामुपास्ते भक्त्या स नरः सद्गतिमाप्नुयात् ॥ ५६ ॥

रोग एवं दरिद्रता के दुःख आदि से सदैव पीड़ित होकर भी, जो साधक भगवती की उपासना भक्तिपूर्वक करता है, हे शिवे ! वह सद्गति को प्राप्त करता है ।। ५६ ।।

जनाः स्तुवन्तु निन्दन्तु लक्ष्मीर्गच्छतु तिष्ठतु ।

मृतिरद्य युगान्ते वा कुलं नैव परित्यजेत् ॥ ५७ ॥

लोग प्रशंसा करें या निन्दा, लक्ष्मी जाए या रहे, मृत्यु आज हो या युग के अन्त में किन्तु साधक कुलधर्म को कभी भी न छोड़े ॥ ५७ ॥

नापि लोभान्न च क्रोधान्न द्वेषान्न च मत्सरात् ।

न कामन्न भयाद्वापि कुलधर्मं परित्यजेत् ॥ ५८ ॥

न लोभ से, न क्रोध से, न द्वेष से, न मत्सर ( ईर्ष्या ) से, न काम से और न भय से किसी भी परिस्थिति में कुलधर्म का त्याग न करे ॥ ५८ ॥

यो जन्तुर्नार्चयेत्त्वान्तु कुलधर्मसमाश्रितः ।

क्लिश्यते जातमात्रेण भूतारिणात्मशत्रुणा ॥ ५९ ॥  

जो जीव कुलधर्म का आश्रय लेकर भगवती की पूजा नहीं करता, वह जन्म लेते ही आत्मशत्रु एवं भूतारियों (घातक जीवों) से क्लेश पाता है ।। ५९ ।।

पुलाका इव धान्येषु पतंगा इव जन्तुषु ।

बुदबुदा इव तोयेषु ये कौलविमुखा हि ते ॥ ६० ॥

कौलधर्म से जो विमुख हैं, वे जल के बुलबुलों के समान नगण्य हैं, जैसे अन्न में पुलाक (भूंसी) और जीवों में पतङ्ग नगण्य होते हैं ।। ६० ।।

तरवोऽपि हि जीवन्ति जीवन्ति मृगपक्षिणः ।

स जीवति मनो यस्य कुलधर्मे व्यवस्थितम् ॥ ६१ ॥

वृक्षों और मृग-पक्षियों का भी जीवन है किन्तु वास्तविक जीवन उसी का है, जिसका मन कुल धर्म में लगा हुआ है ॥ ६१ ॥

कुलधर्मविहीनस्य दिनान्यायान्ति यान्ति च ।

स लोहकारभस्त्रेव श्वसन्नपि न जीवति ॥ ६२ ॥

कुलधर्म से विहीन जीव के दिन आते हैं और बीत जाते हैं । वह लुहार की धौंकनी के समान श्वास लेता हुआ भी जीवित नहीं है ।। ६२ ॥

गच्छतस्तिष्ठतो वापि जाग्रतः स्वपतोऽपि वा ।

कुलेश्वरि कुलाज्ञस्य तत् पशोरिव जीवितम् ॥ ६३ ॥

कुलधर्म को न जानने वाला सदा पशु के समान- हे कुलेश्वरि ! कुल धर्म को न जानने वाला मनुष्य चलते-फिरते, बैठते या जागते-सोते पशु के समान ही जीवन व्यतीत करता है ।। ६३ ॥

विद्वानपि च मूर्खोऽसौ धार्मिको वाप्यधार्मिकः ।

व्रतस्थोऽप्यव्रतस्थो वा यः कौलविमुखो जनः ॥ ६४ ॥

जातास्त एव जगति जन्तवः साधु जीविनः ।

कुलधर्मपरा देवि शेषाश्च द्वारगर्दभाः ॥ ६५ ॥

विद्वान् हो या मूर्ख, धार्मिक हो या अधार्मिक, व्रतधारी हो या व्रत से विमुख हो, जो मनुष्य कौल से विमुख है, वह संसार में जन्म भर लेता है, हे देवि! उसका कोई महत्त्व नहीं होता, जैसे द्वार पर बँधे गधे का कोई महत्त्व नहीं । केवल कुल धर्मपरायण व्यक्ति ही पवित्र जीवन जीते हैं ।। ६४-६५ ॥

स पुमानुच्यते सद्भिः कुलधर्मपरायणः ।

अपरस्तु परं सत्यमस्थिकूटत्वचावृतः ॥ ६६ ॥

कुलधर्म के पालन करने वाले ही वास्तविक मनुष्य- कुलधर्म परायण सज्जन ही मनुष्य कहलाने योग्य हैं। अन्य तो निःसन्देह केवल हड्डियों और खाल के पञ्जर मात्र होते हैं ।। ६६ ।।

चतुर्वेदी कुलाज्ञानी श्वपचादधमः प्रिये ।

श्वपचोऽपि कुलज्ञानी ब्राह्मणादतिरिच्यते ॥ ६७ ॥

कुल को न जाननेवाला वेदज्ञ चाण्डाल से भी अधम- हे प्रिये ! चारों वेदों का ज्ञाता यदि कुल को नहीं जानता, तो वह चाण्डाल से भी अधम है और यदि चाण्डाल भी कुल (= शक्ति) का ज्ञान रखता है, तो वह ब्राह्मण से भी श्रेष्ठ है ।। ६७ ॥

गुरुकारुण्ययुक्तस्तु दीक्षानिर्धूतपातकः ।

कुलपूजारतो देवि सोऽयं कौलो न चेतरेः ॥ ६८ ॥

देवीभक्त ही कुलज्ञ हे देवि ! गुरु की कृपा को प्राप्त करने वाला, दीक्षा-संस्कार द्वारा जिसके पाप नष्ट हो गये हैं, कुल (देवी शक्ति) की पूजा में लगा हुआ मनुष्य ही कौल है, अन्य नहीं ॥ ६८ ॥

यः कौलिकः कुलज्ञानं न पश्यति न विन्दति ।

न पूजयति धिक् तस्य तत् काकस्येव जीवितम् ॥ ६९ ॥

हे देवि ! जो कौलिक कुल (शक्ति) को नहीं देखता, नहीं पहचानता अथवा उनकी पूजा नहीं करता, उसे धिक्कार है। उसका जीवन कौए के समान निरर्थक है ।। ६९ ।

ते धन्याः पुण्यकर्माणस्ते सन्तस्ते च योगिनः ।

येषां भाग्यवशाद्देवि कुलज्ञानं प्रकाशते ॥ ७० ॥

हे देवि ! वे पुण्यकर्मी योगी धन्य हैं, वे सन्त हैं, और वे योगी हैं जिन्हें भाग्यवश कुल का ज्ञान प्राप्त होता है ।। ७० ।।

ते वन्द्यास्ते महात्मानः कृतार्थस्ते नरोत्तमाः ।

येषामुत्पद्यते चित्ते कुलज्ञानं मयोदितम् ॥ ७१ ॥

वे महात्मा वन्दनीय हैं, वे नर श्रेष्ठ कृतार्थ हैं, जिनके मन में मेरा बताया कुलज्ञान उत्पन्न होता है ॥ ७१ ॥

सर्वप्रकाशगमनं सर्वतीर्थावगाहनम् ।

यत् सर्वयज्ञाचरणं कुलधर्मप्रवेशनम् ॥ ७२ ॥

कुलधर्म में प्रवेश करने से सभी प्रकार का प्रकाश (ज्ञान) प्राप्त होता है, सभी तीर्थों के स्नान और सभी यज्ञों के अनुष्ठान का फल मिलता है ॥७२॥

प्रविशन्ति कुलं धर्म ये वै सुकृतिनो नराः ।

ते पुनर्जननीगर्भ न विशन्ति कदाचन ॥ ७३ ॥

जो सुकृती मनुष्य कुलधर्म में प्रवेश करते हैं, वे फिर कभी माता के गर्भ में नहीं पड़ते हैं ।। ७३ ।।

प्रसङ्गेनापि यः कश्चित् कुलं कुलमितीरयेत् ।

कुल तत् पावनं देवि भवति त्वदनुग्रहात् ।

कुलज्ञानस्य कुलेशानि नान्यधर्मैः प्रयोजनम् ॥ ७४ ॥

प्रसङ्ग से भी जो कोई 'कुल कुल' कहता है, हे देवि ! उसका सम्पूर्ण कुल देवी के अनुग्रह से पवित्र हो जाता है । हे कुलेशानि! कुलज्ञाता को अन्य धर्मों की आवश्यकता नहीं रह जाती ।। ७४ ॥

कुलेशि कुलनिष्ठानां कौलिकानां महात्मनाम् ।

ददामि परमं ज्ञानं चान्तकाले न संशयः ॥ ७५ ॥

हे कुलेशि ! कुलनिष्ठ कौलिक महात्माओं को अन्तकाल में मैं परम ज्ञान प्रदान करती हूँ, इसमें सन्देह नहीं ।।७५।।

चिरायासाल्पफलदं काङ्क्षते समयं जनाः ।

सुखेन सर्वफलदं कुलं कोऽपि त्यजत्यहो ॥ ७६ ॥

दीर्घ परिश्रम और थोड़ा फल देने वाले समय (मत) को लोग चाहते हैं। सुख से सभी फलों को देने वाले कुलधर्म को कौन छोड़ता है ।। ७६ ।।

कुलज्ञो हि च सर्वज्ञो वेदशास्त्रोज्झितोऽपि वा ।

वेदशास्त्रागमज्ञोऽपि कुलाज्ञस्त्वज्ञ एव हि ॥ ७७ ॥

वेद शास्त्र से रहित होकर भी कुलज्ञ सर्वज्ञ होता है और वेद शास्त्र तथा आगम का ज्ञाता भी यदि कुल को नहीं जानता, तो वह अज्ञ ( मूर्ख ) ही है ।। ७७ ।।

जानन्ति कुलमाहात्म्यं त्वद्भक्ता एव नापरे ।

चकोरा एव जानन्ति नान्ये चन्द्रगतां रुचिम् ॥ ७८ ॥

हे देवि ! आपके भक्त ही कुल की महिमा को जानते हैं, अन्य नहीं जानते। जिस प्रकार चकोर ही चन्द्रमा की छबि को जानते हैं, दूसरे जीव उसे नहीं जानते ॥ ७८ ॥

कुलज्ञा एव तुष्यन्ति श्रुत्वा कुलकथां प्रिये ।

स्वल्पा नद्यो विवर्द्धन्ते ज्योत्स्नया किं समुद्रवत् ॥ ७९ ॥

हे प्रिये! कुलज्ञ ही कुल की कथा को सुनकर प्रसन्न होते हैं जैसे-ज्योत्स्ना से समुद्र ही वृद्धि को प्राप्त करता है, छोटी नदियाँ नहीं ॥ ७९ ॥

नान्यधर्ममवेक्षन्ते कौलिकाः सारवेदिनः ।

भृङ्गाः पुष्पान्तरं लुब्धा मन्दारामोदसेविनः ॥ ८० ॥

सार तत्त्व को जानने वाले कौलिक लोग दूसरे धर्मों की ओर ध्यान नहीं देते, जैसे भौरे अन्य पुष्पों की अपेक्षा मन्दार पुष्प की ही सुगन्ध से आकृष्ट होते हैं ॥ ८० ॥

मानयन्ते हि सारज्ञाः कुलधर्म न चेतरे ।

शिवः शिरसि धत्तेऽब्जं सैंहिकेया गिलत्यहो ॥ ८१ ॥

भगवान् शिव जिस चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करते हैं, उसको राहु निगल जाता है । इसी प्रकार सारतत्त्व को जानने वाले ही कुलधर्म को सम्मान देते हैं, अन्य नहीं ॥ ८१ ॥

अभिज्ञा एव जानन्ति नाभिज्ञाः कुलदर्शनम् ।

जलमिश्रपयःपानं बकः किं वेत्ति हंसवत् ॥ ८२ ॥

ज्ञानी लोग ही कुल दर्शन को जानते हैं, अज्ञानी जन नहीं जानते । जैसे जल में मिले हुए दूध को क्या हंस के समान बगुला पक्षी भी जानता है, नही ॥ ८२ ॥

शिवशक्तिमयो लोको लोके कौलं प्रतिष्ठितम् ।

तस्मात् सर्वाधिकं कौलं सर्वसाधारणं कथम् ॥ ८३ ॥

यह संसार शिवशक्तिमय है और इस संसार में कौल साधक की प्रतिष्ठा है। अतः सबसे श्रेष्ठ कौल है । फिर यह सर्व साधारण कैसे हो सकता है ।। ८३ ।

षड्दर्शनानि मेऽङ्गानि पादो कुक्षिः करौ शिरः ।

तेषु भेदन्तु यः कुर्यान्ममाङ्गं च्छेदयेत्तु सः ॥ ८४ ॥

छः दर्शन का शिवशक्तिमयत्व एवं वेदात्मक शास्त्र का कौलात्मकत्व- छहों दर्शन मेरे अङ्ग हैं-दो पैर, दो हाथ, कुक्षि एवं शिर । इनमें जो भेद करता है, वह मानों मेरे अङ्ग का भेदन करता है ॥ ८४ ॥

एतान्येव कुलस्यापि षडङ्गानि भवन्ति हि ।

तस्माद्वेदात्मकं शास्त्रं विद्धि कौलात्मकं प्रिये ॥ ८५ ॥

उसी प्रकार ये छ: दर्शन (जो वेदों से निकले हैं) कुल के छ: अंग हैं। अतः हे प्रिये ! कौलशास्त्र को वेदात्मक शास्त्र समझना चाहिए ।। ८५ ।।

दर्शनेष्वखिलेष्वेव फलदं चैकदैवतम् ।

भुक्तिमुक्तिप्रदं नृणां कुलेऽस्मिन् दैवतं प्रिये ॥ ८६ ॥

सभी दर्शनों में एक देवता ही फलदायक है । हे प्रिये ! इस कुल में मनुष्य को भुक्ति एवं मुक्ति देने वाला दैवत है ॥ ८६ ॥

लोकधर्मविरुद्धञ्च सिद्धयोगीश्वरि प्रिये ।

कुलं प्रमाणतां याति प्रत्यक्षफलदं यतः ॥ ८७ ॥

प्रत्यक्षञ्च प्रमाणाय सर्वेषां प्राणिनां प्रिये ।

उपलब्धिबलात्तस्य हताः सर्वे कुतार्किकाः ॥ ८८ ॥

परोक्षं को नु जानीते कस्य किं वा भविष्यति ।

यद्वा प्रत्यक्षफलदं तदेवोत्तमदर्शनम् ॥ ८९ ॥

प्रत्यक्ष फल देने से कुलशास्त्र की प्रामाणिकता - हे सिद्धयोगीश्वरि ! हे प्रिये ! लोक धर्म के विरुद्ध होते हुए भी प्रत्यक्ष फल देने के कारण कुलधर्म की प्रामाणिकता है । हे प्रिये ! सभी जीव प्रत्यक्ष फल चाहते हैं । उसकी उपलब्धि के बल से सभी कुतर्की मारे गए, क्योंकि परोक्ष को कौन जानता है कि किसका क्या होगा ? अतः जो प्रत्यक्ष फल देता है, वही उत्तम दर्शन है ।। ८७-८९ ॥

कुलधर्ममिमं ज्ञात्वा मुच्यन्ते सर्वमानवाः ।

इति मत्वा महेशानि मया कौलं विगर्हितम् ॥ ९० ॥

संसार की रक्षा हेतु कुलधर्म की निन्दा - हे महेशानि ! इस कुलधर्म को जानकर सभी मनुष्य मुक्त हो जाते हैं । यह देखकर मैंने कौल धर्म की निन्दा की है ॥ ९० ॥

त्वत्कारुण्यविहीनानां कुलज्ञानविरोधिनाम् ।

पशुनामनभिज्ञानां कुलधर्मो विगर्हितः ॥ ९१ ॥

वस्तुतः आपकी कृपा से रहित, कुलज्ञान के विरोधी एवं अज्ञानी पशुओं के लिए कुलधर्म की निन्दा की गई है ।। ९१ ॥

यस्य जन्मान्तरे पापकर्मबन्धोऽधिको भवेत् ।

न तस्य गुरुकारुण्यं कुलज्ञानञ्च जायते ॥ ९२॥

पापियों के लिए कुल ज्ञान नहीं है - जिस मनुष्य के पिछले जन्मों के पाप-कर्मों के बन्धन अधिक हैं, उस पर गुरु की कृपा नहीं होती और न उसे कुल का ज्ञान मिलता है ॥ ९२ ॥

यथान्धो नैव पश्यन्ति सूर्य सर्वप्रकाशकम् ।

तथा कुलं न जानन्ति तव मयाविमोहिताः ॥ ९३ ॥

सबको प्रकाशित करने वाले सूर्य को जैसे अन्धे नहीं देख पाते, उसी प्रकार आपकी माया से मोहित मनुष्य कुल को नहीं जान पाते ।। ९३ ।।

शैववैष्णवसौरादि दर्शनान्यपि भक्तितः ।

भजन्ते मानवा नित्यं वृथायासफलानि च ॥ ९४ ॥

शैव, वैष्णव एवं सौर आदि दर्शनों को मनुष्य भक्ति के साथ नित्यप्रति भजते हैं किन्तु उनका परिश्रम व्यर्थ जाता है और उन्हें वाञ्छित फल नहीं मिलता ।। ९४ ।।

वेदशास्त्रागमैः प्रोक्तं भोगमोक्षैकसाधनम् ।

मूढा निन्दन्ति हा हन्त मत्प्रियं तव दर्शनम् ॥ ९५ ॥

वेद, शास्त्र एवं आगमों में भोग और मोक्ष का एक ही साधन आपका दर्शन बताया गया है क्योंकी वह मेरा प्रिय है । किन्तु मूढ़ लोग उसकी निन्दा करते हैं ।। ९५ ।।

भ्रामिता हि मया देवि पशवः शास्त्रकोटिषु ।

कुलधर्म न जानन्ति वृथा ज्ञानाभिमानिनः ॥ ९६ ॥

पशुशास्त्राणि सर्वाणि मयैव कथितानि हि ।

मूर्त्त्यन्तरन्तु गत्वैव मोहनाय दुरात्मनाम् ॥ ९७ ॥

महापापवशान्नृणां तेषु वाञ्छाभिजायते ।

तेषाञ्च सदागतिर्नास्ति कल्पकोटिशतैरपि ॥ ९८ ॥

प्रेर्यमाणोऽपि पापात्मा कुले नैव प्रवर्त्तते ।

वार्यमाणोऽपि पुण्यात्मा कुलमेवाभिलम्वते ॥ ९९ ॥

दुरात्माओं को भ्रमित करने के लिए ही पशुशास्त्रों का प्रचार- हे देवि ! पशुओं को मैंने करोड़ों शास्त्रों से भ्रमित कर रखा है । वे कुलधर्म को नहीं जानते और व्यर्थ के ज्ञान का अभिमान करते हैं। सभी पशु शास्त्रों को मैंने ही दूसरे स्वरूप को ग्रहण कर दुरात्माओं को मुग्ध करने के लिये कहा है । महापाप के वशीभूत होकर उनमें वाञ्छा उत्पन्न होती है । कोटि शतकल्पों में भी उन्हें सद्गति नहीं मिलती । पापात्मा लोग प्रेरित किये जाने पर भी कुल में नहीं आते और पुण्यात्मा लोग मना किये जाने पर भी कुल का ही अवलम्बन करते हैं ।। ९६ ९९ ॥

कुलधर्मेण देवत्वं देवाः सम्प्रतिपेदिरे ।

मुनियोगीश्वराद्याश्च सुसिद्धिं परमां गताः ॥ १०० ॥

कुलधर्म से देवताओं को देवत्व प्राप्ति - कुलधर्म से देवगणों ने देवत्व को प्राप्त किया है । मुनि एवं योगीश्वरादि ने इसी से सिद्धि पाई है ।

विमर्श - द्रष्टव्य ज्ञानार्णवतन्त्रम् ॥ १०० ॥

पशुव्रतादिनिरताः सुलभा दाम्भिका भुवि ।

ये कौलमेव सेवन्ते ते महान्तोऽति दुर्लभाः ॥ १०१ ॥

मिथ्या ज्ञानियों द्वारा कुलधर्म की विडम्बना- पशुव्रतों आदि में लगे हुये दम्भी लोग पृथ्वी पर सरलता से मिल जाते हैं किन्तु जो कौल धर्म ( शक्ति उपासक ) की ही सेवा करते हैं, वे महापुरुष बड़ी कठिनाई से मिलते हैं ॥ १०१ ॥

मानवा बहवः सन्ति मिध्यातत्त्वार्थवेदिनः ।

दुर्लभोऽयं महेशानि कुलतत्त्वविशारदः ॥ १०२ ॥

मिथ्या तत्त्वार्थ को जानने वाले मनुष्य बहुत हैं किन्तु हे महेशानि ! इस कुलतत्त्व के ज्ञाता दुर्लभ हैं ॥ १०२ ॥

यथा रोगातुराः केचिन्मानवाः कुलनायिके ।

दिव्यौषधं न सेवन्ते महाव्याधिविनाशनम् ॥ १०३ ॥

तद्व्याधिवर्द्धनापथ्यं कुर्वन्ति हि कुभेषजम् ।

तथैव जन्ममरणकृतं सांसारिकीं क्रियाम् ॥ १०४ ॥

समाचरन्ति सततं त्वत्कारुण्यविवर्जिताः ।

न भजन्ते कुलं धर्म भववन्धविमोचनम् ॥ १०५ ॥

हे कुलनायिके ! जिस प्रकार रोग से व्याकुल कुछ मनुष्य महाव्याधि को नष्ट करने वाली दिव्य औषधि का सेवन नहीं करते, अपितु उस व्याधि को बढ़ाने वाले अपथ्य का ही सेवन करते हैं और दूषित औषधि का प्रयोग करते हैं, उसी प्रकार अज्ञ लोग जन्म से मृत्यु तक आपकी दया से रहित होकर सदा सांसारिक कर्मों में लगे रहते हैं और संसार के बन्धन से छुड़ाने वाले कुल धर्म का पालन नहीं करते ।। १०३-१०५ ॥

यथा चारण्यजातांस्तु मरीचादीन् वणिग्जनान् ।

मोहतो मानवाः प्रीत्या याचन्ते कुलनायिके ॥ १०६ ॥

अनर्घ्याणि च रत्नानि न याचन्ते हि केचन ।

तथैव पशुशास्त्राणि कर्मपाशफलानि च ॥ १०७ ॥

इति पृच्छन्ति मूर्खास्ते तव मायाविमोहिता ।

कुलधर्म न पृच्छन्ति भुक्तिमुक्तिफलप्रदम् ॥ १०८ ॥

जिस प्रकार लोग व्यापारियों से जंगलों में उत्पन्न होने वाली मिर्च आदि की याचना मोहवश करते हैं और अमूल्य रत्नों को उनसे नहीं माँगते, उसी प्रकार हे कुलनायिके ! आपकी माया के वशीभूत होकर मूर्ख लोग पशुशास्त्रों और कर्म बन्धन में डालने वाले फलों के सम्बन्ध में पूछते रहते हैं और भुक्ति-मुक्ति रूपी फल को देने वाले कुलधर्म के सम्बन्ध में नहीं पूँछते ॥ १०६-१०८ ॥

कस्तूरी कर्दमधिया कर्पूरं लवणेच्छया ।

शार्करं शकराभ्रान्त्या मणिं काचमनीषया ॥ १०९ ॥

यथादृष्टं न मन्यन्ते करस्थमपि पामराः ।

तथा कौलं न जानन्ति त्वत्प्रसादविवर्जिताः ॥ ११० ॥

अहो मोहस्य माहात्म्यं त्वन्मायाजनितस्य च ।

किमज्ञानपि देवेशि मोहयेदमरानपि ॥ १११ ॥

जिस प्रकार हाथ में रखी हुई कस्तूरी, कर्पूर और मणि को वह मूर्ख वास्तविक रूप में भ्रमवशात् नहीं पहचान पाता, क्योंकि उसके मन में क्रमशः कीचड़, नमक और कांच पाने की इच्छा रहती है, उसी प्रकार आपकी कृपा से रहित व्यक्ति 'कौल' साधक को पाकर भी उसे नहीं जान पाता । हे देवेशि ! आपकी माया से उत्पन्न मोह की महिमा अपार है, जो देवताओं को भी मुग्ध कर देती है तो फिर अज्ञानियों की क्या बात है ।। १०९-१११ ।।

विमर्श - जिस प्रकार पामर व्यक्ति कीचड़ की बुद्धि से हाथ में रक्खी कस्तूरी को, नमक की इच्छा से कर्पूर को, कंकड़ की भ्रान्ति से चीनी को और शीशे की बुद्धि से मणि को अन्यथा समझ बैठता है उसी प्रकार आपकी कृपादृष्टि से रहित व्यक्ति कुलधर्म को नहीं जान पाता । इस प्रकार आपकी प्रसन्नता से रहित सारा जगत् मोह में पड़ा रहता है ।। १०९-१११ ॥

पेयं मद्यं पलं खाद्यं समालोक्य प्रियामुखम् ।

इत्येवाचरणं जाप्यं परिप्राप्यं परम्पदम् ॥ ११२ ॥

गुरुकारुण्यसंलभ्यमीदृशं कुलदर्शनम् ।

त्वद्भक्ता एव जानन्ति नेतरे भुक्तिमुक्तिदम् ॥ ११३॥

प्रियतमा ( = शक्ति ) का मुखदर्शन कर मद्य पान और मांस भोजनपूर्वक जप करने से परम पद प्राप्त होता है । गुरु की दया से ही यह कुलदर्शन - मिलता है । आपके भक्त ही इस भुक्ति एवं मुक्ति दायक कुलदर्शन को जानते हैं, अन्य नहीं ॥ ११२-११३ ।।

गुरूपदेशरहिता महान्त इति केचन ।

मोहयन्ति जनान् सर्वान् स्वयं पूर्वविमोहिताः ॥ ११४ ॥

गुरूपदेश से रहित व्यक्ति अन्धकार में ही रहते हैं । ऐसे लोग स्वयं पहले से मुग्ध रहकर सभी लोगों को भ्रम में डालते हैं ।। ११४ ॥

दुराचारपराः केचिद्वाचयन्ति च पामराः ।

कथंभूतो भवेत् स्वामी सेवकाः स्युस्तथाविधाः ॥ ११५ ॥

कितने ही पापी लोग दुराचारी होकर कहा करते हैं कि स्वामी और सेवक का सम्बन्ध कैसे सम्भव है ।। ११५ ।।

बहवः कौलिकं धर्म मिथ्याज्ञानविडम्बकाः ।

स्वबुध्या कल्पयन्तीत्थं पारम्पर्यविवर्जिताः ॥ ११६ ॥

ज्ञान का मिथ्या अभिमान करने वाले बहुत से जन अपनी बुद्धि से 'कौलिक धर्म' की परम्पराहीन कल्पना करते हैं ॥ ११६ ॥

मद्यपानेन मनुजो यदि सिद्धं लभेत वै ।

मद्यपानरताः सर्वे सिद्धिं गच्छन्तु पामराः ॥ ११७ ॥

केवल ( लौकिक ) मद्यपान से यदि व्यक्ति को सिद्धि मिल जाती, तो सभी पापी भी मद्यप सिद्धि को प्राप्त कर जाते ॥ ११७ ॥

मांसभक्षणमात्रेण यदि पुण्या गतिर्भवेत् ।

लोके मासाशिनः सर्वे पुण्यभाजो भवन्ति हि ॥ ११८ ॥

मांस खाने से ही यदि सद्गति मिल जाती, तो संसार के सभी मांसाहारी पुण्यात्मा हो जाते हैं ॥ ११८ ॥

शक्तिसम्भोगमात्रेण यदि मोक्षो भवेत वै ।

सर्वेऽपि जन्तवो लोके मुक्ताः स्युः स्त्रीनिषेवनात् ॥ ११९ ॥

केवल शक्ति के सम्भोग से ही यदि मोक्ष हो जाता, तो सभी स्त्रीसङ्ग करने वाले जीव जन्तु मुक्त हो जाते ॥ ११९ ॥

कुलमार्गों महादेवि न मया निन्दितः क्वचित् ।

आचाररहिता येऽत्र निन्दितास्ते न चेतरे ॥ १२० ॥

हे महादेवि ! कुलमार्ग की मैंने कभी निन्दा नहीं की है । जो आचाररहित हैं, वे ही निन्दनीय हैं, अन्य नहीं ॥ १२० ॥

अन्यथा कौलिके धर्मे आचारः कथितो मया ।

विचरन्त्यन्या देवि मूढाः पण्डितमानिनः ॥ १२१ ॥

कौलिक धर्म की आचार पद्धति मैंने बताया है । हे देवि ! उसे छोड़कर भिन्न प्रकार से जो व्यवहार करते हैं, वे पण्डित अहम्मन्य मूर्ख हैं ।। १२१ ॥

कृपाणधारागमनात् व्याघ्रकण्ठावलम्बनात् ।

भुजङ्गधारणान्नूनमशक्यं कुलवर्त्तनम् ॥ १२२ ॥

कुलमार्ग पर चलना खड्ग की धार पर चलने, बाघ की गरदन पकड़ने और सर्प को पहनने से भी अधिक कठिन है ॥ १२२ ॥

वृथा पानन्तु देवेशि सुरापानं तदुच्यते ।

तत्महापातकं ज्ञेयं वेदादिषु निरूपितम् ॥ १२३ ॥

अनाघ्रेयमनालोक्यमस्पृश्यञ्चाप्यपेयकम् ।

मद्यं मांसं पशूनान्तु कौलिकानां महाफलम् ॥ १२४ ॥

वेदादि में वृथा-पान की निन्दा - हे देवेशि ! वृथापान को सुरापान कहते हैं । वेदादि में उसे महापाप बताया गया है । पशु भाव के साधकों के लिये ( लौकिक ) मद्यमांस का सूंघना, देखना, छूना मना है किन्तु कौलिकों के लिये वे (अलौकिक ) परम फलदायक हैं ।। १२३-१२४ ॥

अमेध्यानि द्विजातीनां मद्यान्येकादशैव तु ।

द्वादशन्तु महामद्यं सर्वेषामुत्तमोत्तमम् ॥ १२५ ॥

सुरा वै मलमन्नानां पाप्मा तु मलमुच्यते ।

तस्माद्ब्राह्मणराजन्यौ वैश्य न सुरां पिबेत् ॥ १२६॥

द्विजातियों के लिये ग्यारह मद्य अग्राह्य- द्विजातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) के लिये ग्यारह प्रकार के मद्य अमेध्य होने के कारण अग्राह्य हैं । बारहवीं (दिव्य ) महामद्य सभी में उत्तम है और द्विजातियों द्वारा ग्राह्य है । अन्नों का मल होने से 'सुरा' पाप को उत्पन्न करती है । अतः ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को (लौकिक) सुरापान नहीं करना चाहिये ।। १२५-१२६ ।।

सुरादर्शनमात्रेण कुर्यात् सूर्यावलोकनम् ।

तत्समाघ्राणमात्रेण प्राणायामत्रयं चरेत् ॥ १२७ ॥

आजानुभ्यां भवेन्मग्नो जले चोपवसेदहः ।

ऊर्ध्व नाभेस्त्रिरात्रन्तु मद्यस्य स्पर्शने विधिः ॥ १२८ ॥

सुरापाने कामकृते ज्वलन्तीं तां विनिक्षिपेत् ।

मुखे तया विनिर्दग्धे ततः शुद्धिमवाप्नुयात् ॥ १२९ ॥

मद्यस्पर्शादिदोषस्य प्रायश्चित्तविधिः स्मृतः ।

सुरा के देखने आदि का प्रायश्चित्त- (लौकिक) सुरा के देखने मात्र से दोष होता है, उसे दूर करने के लिये सूर्य का दर्शन करे । उसे सूँघने से जो दोष होता है, उसे दूर करने के लिये तीन बार प्राणायाम करे और घुटने तक जल में प्रवेश कर दिन भर उपवास करे । मद्य को छू लेने पर प्रायश्चित्त की विधि यह है कि तीन रात तक नाभि के ऊपर जल में प्रवेश कर दिन में उपवास करे। जानबूझकर सुरापान करने पर जिह्वा को दग्ध करने से मुख की शुद्धि होती है । इस प्रकार मद्य के स्पर्शादि दोष की निवृत्ति के लिए ये प्रायश्चित्त कहे गए हैं ।। १२७-१३० ॥

अविधानेन यो हन्यादात्मार्थं प्राणिनः प्रिये ॥ १३० ॥

निवसेन्नरके घोरे दिनानि पशुरोमभिः ।

स मृतोऽपि दुराचारस्तिर्यग्योनिषु जायते ॥ १३१ ॥

वृथा हिंसा करने में दोष- हे प्रिये! अपने स्वार्थ के लिये जो प्राणियों की विधि रहित हिंसा करता है, वह उस पशु के शरीर में जितने रोएँ होते हैं, उतने दिनों तक घोर नरक में निवास करता है और मरने पर वह दुराचारी तिर्यग्योनि में जन्म पाता है ।। १३०-१३१ ।।

अनुमन्ता विश्वसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।

संस्कर्ता चोपहर्त्ता च खादिताऽष्टौ च घातकाः ॥ १३२ ॥

आठ प्रकार के पशु-हिंसक - १. पशु का वध के लिए अनुमान करने वाला, २. पशु को विश्वास में लाने वाला, ३. पशु का वध करने वाला, ४. पशु को खरीदने वाला, ५. पशु को बेचने वाला, ६. पशु का संस्कार करने वाला, ७. पशु को लाने वाला, और ८. पशु मांस को खाने वालाये आठ प्रकार के 'घातक' कहे गये हैं ।। १३२ ॥

धनैर्विक्रयिको हन्ति खादिता चोपभोगतः ।

घातको वध बन्धाभ्यां इत्येष त्रिविधो वधः ॥ १३३ ॥

तीन प्रकार के वध - धन के लिए पशु बेचना, मांस खाकर उपभोग करना और बँधे हुए पशु का वध करना-ये तीन प्रकार के 'वध' हैं ॥१३३॥

मांससन्दर्शनं कृत्वा सुरादर्शनवच्चरेत् ।

तस्मादविधिना मांसं मद्यं न सेवते क्वचित् ॥ १३४ ॥

विधिपूर्वक ही पञ्चमकार सेवनीय-मांस को देखने से सुरादर्शन के समान ही प्रायश्चित्त करना चाहिए। क्योंकि मांस एवं मद्य का सेवन कभी भी अविधिपूर्वक न करे ॥ १३४ ॥

विधिना सेव्यते देवि तरसा त्वं प्रसीदसि ।

नाशयत्यपरिज्ञानात् सत्यमेव वरानने ॥ १३५ ॥

विधिपूर्वक सेवन करने से- हे देवि! आप शीघ्र प्रसन्न होती हैं । यथा विधि सेवन न करने से हे वीरवन्दिते! वह आत्मज्ञान को नष्ट करता है ॥१३५॥

तृणं वाप्यविधानेन छेदयेन्न कदाचन ।

विधिना गां द्विजं वापि हत्या पापैर्न लिप्यते ॥ १३६ ॥

बिना विधि-विधान के तिनके को भी नहीं तोड़ना चाहिए । विधिपूर्वक बैल या द्विज का भी वध करने से पाप नहीं होता ।। १३६ ॥

बहुनात्र किमुक्तेन सारमेकं शृणु प्रिये ।

जीवन्मुक्तिसुखोपायं कुलशास्त्रेषु गोपितम् ॥ १३७ ॥

यन्मुमुक्षोः फलं देवि कनकस्येव सौरभम् ।

कुलज्ञेऽप्यूर्ध्वविख्याते ज्ञानं तत्तदनुत्तमम् ॥ १३८ ॥

कुल- धर्म के अनुकूल श्रुति के प्रमाण- हे प्रिये ! अधिक कहने से क्या लाभ? एक तत्त्व की बात सुनिए - हे महादेवि ! जीवन्मुक्ति का सरल उपाय कुलशास्त्रों में छिपा हुआ है, जो सोने में सुगन्ध के समान मोक्ष के अभिलाषियों के लिए उत्तम फलरूप है । कुल के ज्ञाताओं में भी जो ऊर्ध्वाम्नाय से प्रसिद्ध हैं, उनका ज्ञान श्रेष्ठ है ।। १३७-१३८ ।

कुलशास्त्राणि सर्वाणि मयैवोक्तानि पार्वति ।

प्रमाणानि न सन्देहो न हन्तव्यानि हेतुभिः ॥ १३९ ॥

हे पार्वति ! सभी कुल-शास्त्रों को मैंने ही कहा है । अतः वे स्वतः प्रमाण हैं । इसमें सन्देह नहीं है अतः तर्क-वितर्क द्वारा साधक को उनका खण्डन नहीं करना चाहिए ।। १३९ ।।

देवताभ्यः पितृभ्यश्च मधु वाता ऋतायते ।

स्वादिष्ठया मदिष्ठया क्षीरं सर्पिर्मधूदकम् ॥ १४० ॥

देवताओं और पितरों के लिए समर्पित किया जाने वाला मद्य अमृत-स्वरूप हो जाता है । यह उसी प्रकार अत्यन्त स्वादिष्ट और सन्तुष्टी प्रदान करने वाला होता है जैसे घृत, मधु और चीनी मिले दूध की खीर अत्यन्त स्वादिष्ट होती है ।। १४० ।।

विमर्श - 'मधु वाता ऋतायते' और 'स्वाधिष्ठया मदिष्ठया' आदि दो यजुर्मन्त्र हैं जो तर्पण में प्रयुक्त होते हैं ।

हिरण्यपावाः खादिश्च अबध्नन् पुरुषं पशुम् ।

दीक्षामुपेयादित्याद्याः प्रमाणं श्रुतयः प्रिये ॥ १४१ ॥

पुं-पशु की बलि देकर उसके मांस को विधिवत् स्वर्णपात्र में रखकर वैदिक रीति से प्रसादरूप में उसे ग्रहण करने से अविलम्ब ही सर्वपापों का नाश होकर तत्त्वज्ञान की उपलब्धि होती है ।। १४१ ॥

इत्येतत् कथितं किञ्चित् कुलमाहात्म्यमम्बिके ।

समासेन कुलशानि किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १४२ ॥

हे अम्बिके ! कुल का यह कुछ माहात्म्य मैंने संक्षेप में यहाँ कहा है । हे कुलेशानि! आप पुनः अब क्या सुनना चाहती हैं ? ।। १४२ ।।

॥ इति श्रीकुलार्णवे निर्वाणमोक्षद्वारे महारहस्ये सर्वागमोत्तमोत्तमे सपादलक्षग्रन्थे पञ्चमखण्डे ऊर्ध्वाम्नायतन्त्रे कुलमाहात्म्य- कथनं नाम द्वितीयोल्लासः ॥ २ ॥

॥ इस प्रकार श्रीकुलार्णवतन्त्र के ऊर्ध्वाम्नायतन्त्र में कुलमाहात्म्य कथन नामक द्वितीय उल्लास की पं० चित्तरञ्जन मालवीय कृत हिन्दी पूर्ण हुई ॥ २ ॥

आगे जारी...........कुलार्णवतन्त्र उल्लास 3

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