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योगिनीतन्त्र पटल १४

योगिनीतन्त्र पटल १४        

योगिनीतन्त्र पटल १४ में म्लेच्छगण की उत्पत्ति का वर्णन और कामपालकों के आख्यान का वर्णन है।

योगिनीतन्त्र पटल १४

योगिनीतन्त्र पटल १४       

Yogini tantra patal 14

योगिनीतन्त्रम् चतुर्दशः पटलः

योगिनी तन्त्र चतुर्दश पटल

योगिनी तंत्र चौदहवाँ पटल 

योगिनीतन्त्रम्

श्रीदेव्युवाच ।

भो देव परमानंद महायोगेश्वर प्रभो ।

शुश्रूषा यत्र में देव कृपया कथ्यतां गुरो ॥ १ ॥

तं विप्रस्य चरितं रेतसस्ते सनातन ।

प्लवश्च यवनश्चैव सौमारश्च महेश्वर ॥ २ ॥

तेषां रेतःसमुद्भूता म्लेच्छास्ते कामपालकाः ।

कथं जाता महादेव वद मे करुणामय ॥ ३ ॥

श्रीदेवी ने कहा- हे महायोगेश्वर परमानन्द देव प्रभो ! मैं जो सुनना चाहती हूं, आप कृपापूर्वक उसका वर्णन कीजिये। हे सनातन गुरो ! मैंने विप्रचरित और आपके वीर्य का तेज सुना । प्लव, यवन, सौमारगणों के वीर्योत्पन्न म्लेच्छ गण जो कामरूप के पालक हैं, उन्होंने किस प्रकार वहां से जन्म ग्रहण किया ? आप कृपा करके यह सब कहिये ॥ १- ३ ॥

ईश्वर उवाच ।

शाल्वपुत्राश्च बाह्लीका मृताः कौरवसंयुगे ।

नान्यो वंशधरः कश्चित्तद्वंशे तु त्रिलोचने ॥ ४ ॥

ईश्वर बोले- हे देवि ! शास्वपुत्र बाहलिकगण कौरवसमर में निहत हुए हैं, हे त्रिलोचने ! उस वंश में अन्य कोई वंशधर नहीं था ॥ ४ ॥

तदा बाह्रीकरमणी कीर्भिर्गुणवती शुभा ।

युवती सुन्दरी रम्या तपःशीला महामतिः ॥ ५ ॥

पुत्रेच्छया गता काशीं तपस्तेपे दिवानिशम् ।

स्थित्वा विश्वेश्वराये तु द्वारे मे मुक्तिमण्डपे ॥ ६॥

उसी समय परम सुन्दरी मनोरमा सुन्दरी युवती महामति तपःशीला गुणवती बाह्लिकरमणी कल्याणिनी कीर्मि पुत्र प्राप्त होने की इच्छा से काशी में आकर विशेश्वर के अग्रद्वार मुक्तिमण्डप में स्थित हो दिन रात तपस्या करने लगी ॥ ५-६ ॥

तदा बलिसुतो बाणो महाकालो महाबलः ।

तद्वारपालको देवि शुशुभे तां निरीक्ष्य च ॥ ७ ॥

मदधीकामादाय भैरवं काममोहितः ।

कपालमाली मदिरामोदितोन्मत्तवेषवान् ॥ ८ ॥

उसी समय बलिपुत्र बाण और महाबल महाकाल विश्वेश्वर के द्वारपाल थे, तिनके मध्य मेरे अधिकार में स्थित भैरव शोभायमान कीर्मि को देखकर काम से मोहित हुआ कपालमालाधारी मदिरा से मत्त, उन्मत्त बेशवान् ॥७- ८ ॥

तपस्विवेषमास्थाय निर्लज्जो रतिनायकः ।

कीर्मैर्जाता महादेवि बन्धूकामलकद्युतिः ॥ ९ ॥

भैरवो विपुलस्तत्र ततो जातो महाङ्कुशः ।

कीर्मेः सुतो महादेवि महाकालस्य रेतसः ॥ १० ॥

तपस्वी बेशवारी, निर्लज्ज रतिनायक भैरव ने कीर्मि के संग प्रेम पाश में बद्ध होकर सहवास किया । हे महादेवि ! इससे कीर्मि के महाकुंशनामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ । बन्धूकामलक ( दुपहरी के पुष्प के समान ) इस पुत्र की कान्ति देखने से कीर्मि अतिशय आल्हादित हुई । महाकाल के वीर्य से यह कीर्मि का पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ ९-१०॥

वात्सल्यं तत्र दृष्ट्वाहं तत्पुत्रो भैरवस्य च ।

तयानिशं रातें चापि महाङ्कुशमहाभुजम् ॥ ११ ॥

राज्याप्तिं सह तस्यापि कीर्मिचेष्टां च शाम्भवि ।

कामरूपांतकः शाल्वो राज्यं प्राप्तो महाङ्कुशः॥ १२ ॥

भैरव के उस पुत्र को देखने से मुझको अत्यन्त वात्सल्य उत्पन्न हुआ । हे शाम्भवि ! महाभुजशाली महाकुंश अत्यन्त यत्नसहित ललित और पालित होने लगा । कीर्मि की तपस्या से उसको राज्य प्राप्त हुआ। कामरूपान्तक शाल्व इस प्रकार महाकुंश रूप में राज्य को प्राप्त हुआ ॥ ११-१२ ॥

कीर्मेयोनिं समासाद्य कुलाचारपरायणः ।

समर्चयद्यथा काइयां तथा तत्रापि सर्वदा ॥ १३ ॥

वह शाल्व कीर्मि के गर्भ से उत्पन्न होकर कुलाचारपरायण हुआ और सदा ही काशी में वास करके तुम्हारी पूजा करने लगा ॥ १३ ॥

त्वत्पूजा तत्र महती भविष्यति दिवानिशम् ।

महाङ्कुशं समुद्भूय काश्यामास्कन्दनं कुतः ॥ १४॥

ततः प्लवेतिनामा च जगाम मणिमण्डपम् ।

एवं ते कथितं देवि चरितं प्लवसम्मतम् ॥ १५ ॥

हे देवि ! वहां रातदिन ही तुम्हारी महती पूजा होगी, इसमें सन्देह नहीं। महाकुंश की उत्पत्ति के पीछे अन्य काशी में आक्रमण और आस्कन्दादि कुछ नहीं है। फिर वह प्लवनाम से विख्यात होकर मणिमण्डप में गया । हे देवि ! यह मैंने तुमसे प्लवचरित्र वर्णन किया ॥ १४- १५ ॥

यावनं चरितं किञ्चित्कथयामि शृणुष्व तत् ।

आसीत्त्रेतायुगे राजा बाहुर्धर्मपरायणः ।

महाबुद्धिर्महायोद्धा सूर्यवंशसमुद्भवः ॥ १६ ॥

हे देवि ! कुछेक यवनचरित्र वर्णन करता हूं सो सुनो। त्रेता युग में बाहुनामक महाबुद्धि महायोद्धा धर्मपरायण सूर्यवंशीय राजा था ॥१६॥

पितृशत्रून्विनिर्जित्य सप्तद्वीपां वसुन्धराम् ।

बुभुजे परम कामं योगध्यानं तु विस्मृतम् ॥ १७ ॥

वह पिता के समस्त शत्रुओं को जीतकर सप्तद्वीपवाली पृथ्वी में सब परम भोग्य विषय भोगने लगा । किन्तु योग ध्यानादि सब भूल गया ॥ १७ ॥

बहुकाले महामाये ततः स्वमदमोहितः ।

मत्तोधिकोऽधिको राजा नास्तिभूमण्डलेऽधुना ॥ १८ ॥

निपात्य पितृशत्रून्यत्पितृश्राद्धं कृतं मया ।

एवं जातो ह्यहंकारः सर्वनाशकरो हि यत् ॥ १९ ॥

हे महामाये ! फिर बहुत काल में बाहुराजा अपने मद से मोहित होकर विचारने लगा कि इस समय पृथ्वी मण्डल में मेरी अपेक्षा बलवीर्य वैभवादि सम्पन्न राजा और कौन है ? मैंने पिता के शत्रुओं को मारकर तब पितृश्राद्ध किया है, इस प्रकार सर्वनाशकर अहंकार उसके मन में उत्पन्न हुआ ॥ १८-१९ ॥

तस्मान्नु पापसञ्चारो जातस्तस्य महीभुजः ।

पापात्मा यो भवेद्राजा राजता न कदाचन ॥ २० ॥

इसी कारण उस महीभुज राजा को पाप का सञ्चार हुआ। जो राजा पापात्मा होता है, उसका राज्य कभी नहीं रहता ॥ २० ॥

अहंकारी युद्धच सदा नैवं व्यवस्थितम् ।

महापापानि सर्वाणि साङ्गान्येतानि निश्चितम् ॥ २१ ॥

अहंकार और युद्ध, यह सदैव निश्चित नहीं हैं यह सब वीरों के पक्ष में निन्दनीय, विनाश के हेतु और महादोषाकर हैं ॥ २१ ॥

तस्य तेनैव भावेन राजलक्ष्मीर्विनिर्गता ।

आविर्भूतो हैहयश्च तालजंघा नृपोत्तमाः ॥ २२ ॥

इसी कारण बाहुराजा की राजलक्ष्मी शीघ्र विच्युत हो गई । तत्काल तालजंघ और हैहयराज का अविर्भाव हुआ ॥ २२ ॥

मन्त्रयित्वा च राजनो लंघयित्वाम्बुधिं तदा ।

व्यजिताः करदानेन प्रापुरुत्तरकोशलान् ॥ २३ ॥

आदौ पराजितस्तैस्तु बाहुमासेन निष्कृतः ।

जितराज्यो बाहुराजः सत्रीको वनमाययौ ॥ २४ ॥

राजाओं ने एकत्र मिलित होकर मंत्रणापूर्वक समुद्र लंघन करके बहुराज को परास्त करने के पीछे उत्तरकोशल का अधिकार कर लिया बाहुराज्य क्रमशून्य थे, अतएव एक ही मास में पराजित हुए । हृत राज्य बाहुराज स्त्रीसहित वन को चले गये ॥ २३- २४ ॥

ममार तद्वने बाहुः समस्त निष्प्रभं यथा ।

तत्पुत्रः सगरो धीरो महावीर्यपराक्रमः ।

विसज्जितौ तेन भूपौ तालजंघोथ हैहयः ॥ २५ ॥

अवमानाद्वसिष्ठस्य तत्तयोरीदृशी गतिः ।

पुनश्च नौ च राजानौ यवनौ प्राणकातरौ ॥ २६ ॥

वसिष्ठ शरणं यातौ रक्ष रक्षेति वादिनौ ।

ततस्तान्यवनान्विप्रो वसिष्ठस्त्वभयं ददौ ॥ २७ ॥

यहां उन्होंने प्राण त्याग किया, इससे सब ही निस्तेज हो गये। बाहु का पुत्र सगर, धीर, महावीर्य और महापराक्रमशाली था । उस भुजबल से तालजंघा और हैहय गण को राज्य से दूर किया था । उन्होंने वसिष्ठजी का अपमान किया था, इसी कारण उनकी ऐसी दुर्दशा हुई थी। इन दोनों यवन राज ने प्राणभय से कातर होकर वसिष्ठ के निकट आगमन पूर्वक रक्ष रक्ष कहकर आश्रय लिया । वसिष्ठ ने इन यवनों को अभयदान दिया ॥२५-२७ ॥

एतस्मिन्नन्तरे भूपः सगरः क्रोधमूच्छितः ।

तान्हन्तुकामो नृपतिर्वसिष्ठान्तिकमाययौ ॥ २८ ॥

तं तथाभूतमालोक्य वसिष्ठो ब्रह्मसम्भवः ।

उवाच सगरं देवि धर्मज्ञं बाहुनन्दनम् ॥ २९ ॥

उसी समय में सगरराज क्रोध से मूर्छित हो उनके विनाश करने की इच्छा से वसिष्ठ के समीप उपस्थित हुआ । ब्रह्मसम्भव वसिष्ठ ऋषि ने धर्मज्ञ बाहुनन्दन सगरराजा को आया हुआ देखकर कहा ॥ २८- २९ ॥

बाहुनन्दन माहिंसीरभयं दत्तवानहम् ।

तच्छ्रुत्वा स्थगितो राजा बाहुजो ह्यभवत्कृती ॥३०॥

हे वीर बाहुनन्दन ! तुम इनको मत मारना मैंने इनको अभय दिया है । यह सुनकर बाहुराज कृतिवर सगर ने स्थगित (आश्वर्य को प्राप्त) होकर विचार किया ॥ ३० ॥

ब्रह्मवाक्यं वृथा न स्यात्प्रतिज्ञा मेऽपि पूर्वजा ।

इदानीं किं करोम्यद्य संकटं समुपस्थितम् ॥ ३१ ॥

मैंने पहिले प्रतिज्ञा करी है कि कभी ब्रह्मवाक्य का अपमान नहीं करूंगा, अब मैं क्या करूं, मुझको विषम संकट उपस्थित है ॥ ३१ ॥

इति सञ्चिन्त्य तत्सर्वं वसिष्ठं स न्यवेदयत् ।

हन्मि तान्मानुषगणान्प्रतिज्ञा मे कृता पुरा ॥ ३२ ॥

यह सब विचारकर वशिष्ठजी से निवेदन किया। मैंने पूर्व में प्रतिज्ञा की है कि इन सब यवनों को हनन करूंगा ॥ ३२ ॥

तत्र त्वद्वचनं श्रुत्वा इतोऽहं किं करोम्यतः ।

त्वद्वाक्यमन्यथा कर्तुं नाहं शक्तो मुनीश्वर ॥ ३३ ॥

अब आपका वचन सुनकर मैं हतबुद्धि हुआ हूं क्या करूं कुछ स्थिर नहीं कर सकता। हे मुनिवर । मैं आपका वचन भी अन्यथा नहीं कर सकता ॥ ३३ ॥

यदोपायं नो करोषि श्रेयो मे मरणं तदा ।

एवं श्रुत्वा वसिष्ठोसौ सत्वरं प्रत्यभाषत ॥ ३४ ॥

यदि आप इसका उपाय न करेंगे, तो मेरा मरना ही श्रेष्ठ है । यह वचन सुनकर वशिष्ठ ने शीघ्र उत्तर दिया ॥३४॥

वसिष्ठ उवाच ।

मा विषादं गच्छ सखे कर्त्तव्यं यच्छृणुष्व तत् ।

तवा तीनिमान्सर्वा मुण्डयित्वा शिरांसि तु ।

वेदाचारवहिर्भूतान्देशात्वं कुरु दूरतः ।। ३५ ।।

वसिष्ठजी बोले-हे सखे ! तुम विषाद मत करो। मुझसे कर्तव्य सुनो । आपने इन सब शत्रुओं का शिर मुण्डन और इनका वेदाचार बहिर्भूत करके देश से दूर निकाल दो ॥ ३५ ॥

हिमाद्रेः पश्चिमे भागे देशे तु यवनो नृपः ।

इत्थं मे वचनं तिष्ठत्प्रतिज्ञाऽपि च ते विभो ॥ ६६ ॥

शिरसां कृन्तनं युद्धे मुण्डनं तद्वदेव हि ।

वेदेऽपि स्थिरमेतद्धि समानं समुदाहृतम् ॥ ३७ ॥

हिमाचल के पश्चिम भाग में यवन देश है, वहां इनको निकाल दो । तो तुम्हारी प्रतिज्ञा भी मिथ्या नहीं होगी, क्योंकि शिरछेदन और शिरमुण्डन एक कार्य है । वेद में यह दोनों कार्य ही समान कहे गये हैं ॥ ३६- ३७ ॥

ईश्वर उवाच ।

इत्थं तद्वचनं श्रुत्वा सगरोऽपि तथाकरोत् ।

तेऽपि वै क्षत्रियाः सर्वे हैहयास्तालजङ्घकाः ।

विडम्बिता विहीनास्ते सदा मुण्डितमस्तकाः ॥ ३८॥

ईश्वर ने कहा- वसिष्ठजी का यह वचन सुनकर सगर ने भी उनके प्रति वैसा ही आचरण किया । क्षत्रिय हैहय और तालजंघगण इस प्रकार मंडितमस्तक विडम्बित ( अपमानित ) और हीन होकर ।। ३८ ।।

सुषेणं मुनिमाश्रित्य सदाचारविवर्जिताः ।

सुषेणस्योपदेशात्ते तपस्तेपुः सदाश्रिताः ॥ ३९ ॥

सुषेण मुनि का आश्रय ग्रहणपूर्वक सदाचाररहित होकर रहे अनन्तर मुनि के उपदेश से उसने सदा तपस्या करनी आरम्भ की ॥ ३९ ॥

यमाश्रित्य महादेवि स्वेच्छाचारपरायणाः ।

तामसास्ते महादेवि तामसं भावमाश्रिताः ॥ ४० ॥

हे महादेवि ! वह स्वेच्छाचार परायण थे, अतएव तामस भाव ग्रहण पूर्वक तामसधर्मी हुए ॥ ४० ॥

संयोगञ्च वियोगञ्च मन्त्राणाञ्च द्विधा गतिः ।

सात्विके राजसे देवि संयोगः फलदायकः ।

बाह्यान्तरवियोगेन संयोगोपि ह्यनुत्तमः ।

तामसेतु वियोगः स्याद्वाह्यसिद्धिफलप्रदः ॥ ४१ ॥

समस्त मन्त्रों की गति संयोग और वियोग भेद से दो प्रकार है। हे देवि ! सात्विक और राजधर्म में संयोग फलदायक बाह्यान्तर वियोगसहित संयोग भी उत्तम है, तामस में वियोग बाह्य भी सिद्धिप्रद होता है॥४१॥

तामसः परलोके तु बाह्यस्तद्धर्म ईरितः ।

तेषां तेनैव भावेन प्रसादो मेऽभिजायते ॥

मया दत्तो वरस्तेभ्यः शृणु कामयितुर्वरम् ।

भुंक्ष्वेदानीमिदं राज्यं यवनाभीष्टमेव च ॥ ४२ ॥

तामस परलोक में बाह्य धर्म कहा जाता है उनके इस तामस भाव में ही मेरी प्रसन्नता होती है, मैंने उसको वर दिया था, सो उन कामना करनेवाले के वर को सुनो। हे यवनो ! तुम इस समय यह राज्य भोग करके अवस्थान करो ॥ ४२ ॥

काले तथन्द्रष्टनवोन्मते शाके कलौ युगे ।

पुण्यदेशाधिपा यूपं भविष्यथ सुनिश्चितम् ॥ ४३ ॥

और कलियुग में इन्दु अष्ट नव शाक अर्थात् नौ सौ इक्यासी (९८१) गत होने पर तुम निःसन्देह पुण्यदेश के अधिकारी होगे ॥ ४३ ॥

एवमेव महेशानि कामरूपाधिपः शिवे ।

यवनो मत्प्रसादेन तथान्यपुण्यभूमिषु ।

बहुभूपसमाकीर्णः कलौ भुंक्ते महीं मुदा ॥ ४४ ॥

हे महेश्वरि शिवे ! इस प्रकार यवनगण कामरूप के अधीश्वर हुए थे यवनगण मेरे प्रसाद से कलिकाल में अन्यान्य पुण्यभूमि के अधीश्वर होकर बहुतर यवनराज प्रफुल्लित चित्त से पृथ्वी को भोगते हैं ॥ ४४ ॥

एवं ते कथितो देवि वृत्तान्तो यावनः सदा ।

इदानीं श्रूयतां युद्धे सौमारचरितं तथा ॥ ४५ ॥

हे देवि ! यह मैंने तुमसे यावनिक वृतान्त कहा। अब सौमारगणों के युद्ध के चरित्र की कथा सुनो ॥ ४५ ॥

एकदाऽमरराजस्तु खाण्डवं वनमाययौ ।

विहाय देवराज्यं च कौशलाङ्गया सह स्वयम् ॥ ४६ ॥

एक दिन अमरराज इन्द्र अमरराज्य छोड़कर कौशलानी के सहित खाण्डव वन में गये ॥ ४६ ॥

गतेषु बहुकालेषु क्रीडया देवभूभुजः ।

तौर्यविके सम्यगिच्छा जाता बहुविधा तथा ॥ ४७ ॥

देवराज ने वहां बहुतकाल क्रीडा करी तदनन्तर उनकी तौर्यत्रिकादि (गाना नाचना बजाना इत्यादि) विषय में सम्यक् वासना उत्पन्न हुई ॥ ४७ ॥

रम्भां तिलोत्तमांकाचीं कुरङ्गाक्षा मनोहराम् ।

आदिदेश समानीय नृत्यं कर्तुं च रम्भया ॥ ४८ ॥

ततस्तेन वृताः सर्वा वेश्या ननृतुरन्विता ।

इन्द्रं विधिविधानेन तोषयामासुरोजसाः ॥ ४९ ॥

अनन्तर देवेन्द्र ने रम्भा, तिलोत्तमा, काची, कुरङ्गाक्षी, मनोहरा, इन सब स्वर्ग की स्त्रियों को रम्भा के साथ बुलाकर नाचने की आज्ञा दी । देवराज से बुलाई हुई अप्सराओं ने नाचना आरम्भ किया । अनेक प्रकार के विधान से स्वर्ग की वेश्याओं ने इन्द्र को सन्तुष्ट किया ॥४८- ४९ ॥

मोहिता चापि कौशाङ्गी देवराजेन सङ्गता ।

तासां नृत्यप्रगीतेन कामोद्रेकोऽभवत्तदा ॥ ५० ॥

अनन्तर कौशाङ्गी मोहित होकर देवराज से संगत हुई, तब उनके नृत्य गीत द्वारा इन्द्र को काम उत्पन्न हुआ ॥ ५० ॥

एतस्मिन्नन्तरे देवि या स्वर्वेश्या मनोहरा ।

तया रतिं समकरोदेवेन्द्रो बलसूदनः ॥ ५१ ॥

फिर सुरासुर प्रणम्य दुर्दान्त दनुजशास्ता बलघातक इन्द्र ने मनोरमा नामक स्वर्गवेश्या के प्रति अनुराग प्रदर्शन किया ॥ ५१ ॥

इन्द्रं तद्विधमालोक्य मनो दधे तथा तु सा ।

कामवेगेन विभ्रान्ता स्खलिता नृत्यगीतयोः ॥ ५२ ॥

इनको इस प्रकार अनुरक्त देखकर उस मनोहरा स्वर्ग की वेश्या ने भी इन्द्रके प्रति मनोधारण किया। इससे कामावेश के कारण घबड़ा कर मनोहरा का नृत्य गीत स्खलित होने लगा ॥ ५२ ॥

रतिधैर्य तयोर्जातं तस्यास्तत्स्खलनं पुनः ॥ ५३ ॥

ततस्तस्या मनोज्ञात्वा कौशाङ्गी क्रोधमूर्च्छिता ।

उवाच निष्टुरां वाणीं शृणु देवि मनोहरे ॥ ५४ ॥

यह देख और उन दोनों की प्रीति उत्पन्न हुई जान कौशङ्गी ने कोष मूर्च्छित हो निष्ठुर वचनों के द्वारा मनोहरा से कहा- हे मनोहरे ! सुनो ॥ ५३- ५४ ॥

भूत्वा वेश्या महादुष्टा मद्रतं देवमीहसे !

अतः प्रचलितं चित्तमावयो रतिकर्मणि ॥ ५५ ॥

तू स्वर्ग की महादुष्ट वेश्या होकर मुझमें प्रीति करते हुए देवेन्द्र की इच्छा करती है इसी कारण हमारे रतिकार्य में विघ्न उपस्थित कराकर उसको भग्न कर दिया ।। ५५ ।।

अतो वेश्ये याहि भुवि राजानं पतिमाप्नुहि ।

एवमुक्तं दुष्टशार्प कौशाङ्गीमुख निःसृतम् ।

श्रुत्वा च मूच्छिता भूत्वा कौशाङ्गीचरणेऽपतत् ॥ ५६ ॥

अत एव तू मर्त्यलोक में जाकर नरपति को पति प्राप्त करो । कौशाङ्गी के मुख से निकला इस प्रकार दुष्टशाप सुनकर मनोहरा मूर्च्छित हो कौशाङ्गी के चरणों में गिर गई ॥ ५६ ॥

विललाप सुदुःखार्ता धृत्वा च चरणौ मुहुः ।

ततो जगाद कौशाङ्गी द्वात्रिंशद्वायनं भुवि ।

मुत्क्वा मनोहरे शापं पूर्णे स्वास्थ्यं गमिष्यसि ॥५७॥

वारम्वार चरण पकड़ कर विलाप करने लगी यह देखकर कौशाङ्गी-को करुणा उत्पन्न हुई । उसने कहा तू बीस वर्ष शाप भोगने के पीछे फिर सुस्थता लाभ करेगी ।। ५७ ॥

मन्दाकिन्यां त्यक्ततनुस्ततः स्वर्गं गमिष्यसि ।

कङ्कता मोहिनी सा तु धार्त्तराष्ट्रं पतिं गता ॥ ५८ ॥

फिर तू मन्दाकिनी में मनुष्य शरीर छोडकर स्वर्ग में जायगी । उस मनोहरा ने मर्त्यलोक में कंकती नामक मोहिनी कामिनी होकर घार्तराष्ट्र को पति लाभ किया ॥ ५८ ॥

कौरवे च कुरुक्षेत्रे हते नारिशतं मृतम् ।

तूर्णश्च कङ्कती सागाच्चन्द्रचूड गिरिं भिया ॥ ५९ ॥

अत्युच्च शिखरे तस्य सा तस्थौ भृशदुःखिता ।

प्राप्ता ऋतुं स्वर्गवेश्या द्वितीयदिवसे निशि ।

कामवाणैश्च संविद्धा मूच्छिता तापमागता ॥ ६० ॥

फिर कुरुक्षेत्र के समर में कौरवों के निहत होने पर सौ नारियों ने प्राण त्याग किया कंकती डरकर शीघ्रतासहित चन्द्रचूडपर्वत में भाग गई । कंकती अत्यन्त दुःखित होकर उस पर्वत के अत्यन्त ऊंचे सिखर में वास करने लगी, एक समय वही स्वर्गवेश्या ऋतुमती होकर दूसरे दिन कामबाण से विद्ध हो अत्यन्त सन्तापित हुई ॥ ५९-६०॥

इन्द्रो रथसमारूढोऽयादपश्यत्तु सुन्दरीम् ।

सालंकारा कुशद्वीपात्स्मृत्वा तत्पूर्वकारणम् ॥ ६१ ॥

वेदयित्वा च तत्सर्वं तां कान्तां काममोहिताम् ।

रतिं कृत्वा गतस्तस्याः सुतोभूच्च ह्यरिन्दमः ॥ ६२ ॥

इसी समय देवराज ने रथ में चढकर कुशद्वीप से गमन करते करते गहनों से युक्त उस सुन्दरी को देखा । उन्होंने पूर्व कारण स्मरणपूर्वक उस काममोहिता कांता को समस्त विदित कराया। फिर आसक्त होकर उसके संग सहवास किया इसी से गंधमादन पर्वत में कंकती के अरिन्दम नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ ६१- ६२ ॥

कङ्कत्याः परमेशानि पर्वते गन्धमादने ।

यतो जग्राह तामिन्द्रो द्वितीयदिवसे ऋतौ ॥ ६३ ॥

ततः सोरिन्दमश्चाभून्म्लेच्छाचारपरायणः ।

व्यावृत्तिरतो घोरः सर्वदा प्राणिहिंसकः ॥ ६४ ॥

सर्वमांसादनो देवि किरातो घटितो यथा ।

सर्वपुण्यवहिर्भूतः सर्वपापसमाकुलः ॥ ६५ ॥

मद्यमांसमदामोदी कदाचारपरायणः ।

ईदृशं तं सुतं दृष्ट्वा कङ्कती भृशदुःखिता ॥ ६६ ॥

तपस्तेपेऽतिगाढं च सारात्सारं परात्परम् ।

तदा तस्याः पुरः स्थित्वा देवराजो जगाद ह ॥६७॥

इन्द्र ऋतु के दूसरे दिन उससे सहवास किया था। इसी कारण अरिन्दम म्लेच्छाचार परायण व्याधवृत्ति निरत घोरतर सब प्राणियों का हिंसक मद्य मांस सम्भोग में आमोदी और किरात के समान सर्वमांसभक्षी । कदाचार परायण (निंदित आचारयुक्त पवित्र कर्म से रहित) और सर्वप्रकार के पापों में आसक्त हो गया । कंकती ने पुत्र का ऐसा आचरण देख अत्यन्त दुःखित होकर घोर तप आरंभ किया। तब देवराज ने उसके सन्मुख खड़े होकर कहा ॥ ६३-६७ ॥

इन्द्र उवाच ।

किन्निमित्तं तपस्तप्तं स्वया कंकति मे वद ।

तपसा तेऽतिसंतुष्टो यदीच्छसि ददामि च ॥ ६८ ॥

इन्द्र ने कहा- हे कंकति ! तुम किस कारण तप करती हो ! मुझसे कहो । मैं तुम्हारे तप से अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ हूं। जो इच्छा करोगी वही दूंगा ॥ ६८ ॥

कंकत्युवाच ।

सुतस्ते ईदृशो जातः सदा पापपरायणः ।

द्रष्टुं न शक्ता देवेश यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ६९ ॥

देवाधिदेव देवेश सुतोयं ते सुराधिप ।

भवेत्सत्यं न सन्देहः पापचारी नराधमः ॥ ७० ॥

यतस्त्वं देवतानाथो विराधोयं सुतस्तव ।

यथेच्छसि तथा नाथ कुरु मां नय हे प्रभो ॥ ७१ ॥

किंकरीत्वं पार्श्वदेशे किङ्करीत्वे नियोजय ।

देवाधीश वरो ह्येष नान्यः कामः कदाचन ॥ ७२ ॥

कंकती बोली- मेरे गर्भ से तुम्हारी जो सन्तान उत्पन्न हुई है । वह सदा ही पापाचार में निरत है। हे देव ! मैं उसका पापाचार देखने में समर्थ नहीं हूं। आप इस विषय में जो उत्तम हो वही कीजिये । हे देवाधिदेव ! देवेश ! तुम्हारा यह पुत्र नराधम होगा इसमें सन्देह नहीं । हे इन्द्र ! आप देवताओं के अधिनाथ हैं। तुम्हारा पुत्र ऐसा नराधम हुआ । इस विषय में आपकी जो इच्छा हो वह कीजिये मुझको शीघ्र ही जहां इच्छा हो वहां ले चलिये इस किंकरी को लेकर किंकरी कार्य में नियुक्त कीजिये। हे देवाधिप ! यही मेरी कामना है । अन्य कामना मेरी नहीं है ॥६९-७२ ॥

इन्द्र उवाच ।

शृणु प्रेयसि मद्वाक्यं शापकालो गतस्तव ।

त्वरितं नेष्याम्यधुना त्वामहं सुस्थिरा भव ॥७३॥

इन्द्र ने कहा- हे प्रेयसि ! सुनो तुम्हारा शापकाल बीत गया । अब तुझको शीघ्र ही ले जाऊंगा। स्थिर होओ॥७३॥

पुत्रस्य पापयोगेन वंशनाशो ध्रुवं भवेत् ।

अतः शताष्टविंशे च पुरुषे क्षयिते सति ॥ ७४ ॥

सौमारवासिनो भूत्वा वंशे मे राजपुङ्गवाः ॥ ७५ ॥

न्यायबुद्धिमहोत्साहा देवविप्रपरायणाः ।

भविष्यन्ति न सन्देहो ब्रह्मज्ञा ब्रह्मवादिनः ।

गच्छन्ति चापि वैकुण्ठे सर्वस्युर्विष्णुवल्लभाः ॥ ७६ ॥

लयमेष्यन्ति तत्रैव यावदाभूतसंप्लवम् ॥ ७७ ॥

पुत्र के पापयोग से वंश का नाश होता है। अत एव एक सौ अट्ठाईस पुरुष के क्षय होने पर त्वदीयगर्भज मद्वेश्यगण सौमारदेश में वास करके राजश्रेष्ठ होंगे। वह सब पुण्यश्लोक अर्थात् ईश्वर भक्त धर्मरत सदाचार परायण न्यायबुद्धि सम्पन्न महोत्साहशाली ब्रह्मतत्त्वज्ञ और देव- द्विज परायण होंगे। इसमें सन्देह नहीं । वह सभी विष्णुभक्ति परायण होकर वैकुण्ठ में जायेंगे फिर जब प्रलय होगी तब वह प्रलय को प्राप्त होंगे ॥ ७४-७७ ॥

ईश्वर उवाच ।

ततस्तान् समादाय जगामेन्द्रो निजालयम् ।

तथा काले तु सौमारः कामरूपाधिपोऽभवत् ॥ ७८ ॥

ईश्वर ने कहा- तदन्तर इन्द्र उस कंकती को अपने स्थान में ले गया यथाकाल में कंकती गर्भज सौमारगण कामरूप के अधीश्वर हुए ।।७८।।

पूर्वभागे च सौमारः कुशचः पश्चिमे तथा ।

दक्षिणे यवनस्तद्वदुत्तरे प्लव एव च ॥ ७९ ॥

पूर्व भाग में सौमार पश्चिम में कुवाच दक्षिण में यवन और उत्तर में लवगण ने राज्य किया था ।। ७९ ।।

एवमेव महादेवि ते सर्वे कामपालकाः ।

एवं ते कथितं देवि सौमारचरितं हि तत् ॥ ८० ॥

हे महादेवि ! यह सब कामरूप के पालक हुए थे हे देवि ! यह मैने तुमसे सौमार चरित वर्णन किया ॥ ८० ॥

इतः किमिच्छसि श्रोतुं यत्त्वया न श्रुतं क्वचित् ॥ ८१ ॥

इसके पीछे जो कभी तुमने नहीं सुना ऐसा और क्या सुनने की इच्छा है? सो कहो ॥ ८१ ॥

इति श्रीयोगिनीतन्त्रे सर्वतन्त्रोत्तमोत्तमे देवीश्वरसम्वादे चतुर्विशति-साहस्रे भाषाटीकायां चतुर्दशः पटलः ॥ १४ ॥

आगे जारी........ योगिनीतन्त्र पटल 15

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