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दुर्गा स्तोत्र

दुर्गा स्तोत्र

ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रकृतिखण्ड अध्याय ६४ श्लोक ८-३१में वर्णित महादेवी श्री दुर्गाजी की परम उत्तम तथा कल्पवृक्ष के समान वांछापूरक सामवेदोक्त ध्यान स्तुति दुर्गा स्तोत्र बताया गया है।

श्री दुर्गा स्तोत्रम्

श्री दुर्गा स्तोत्रम्

Durga stotram

श्रीदुर्गा स्तोत्रं

श्री दुर्गा ध्यान स्तुति

दुर्गास्तोत्र

ध्यायेन्नित्यं महादेवीं मूलप्रकृतिमीश्वरीम् ।। ८ ।।

ब्रह्मविष्णुशिवादीनां पूज्यां वन्द्यां सनातनीम् ।

नारायणीं विष्णुमायां वैष्णवीं विष्णुभक्तिदाम् ।। ९ ।।

मूलप्रकृति ईश्वरी महादेवी का नित्य ध्यान करे। वे सनातनी देवी ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि के लिये भी पूजनीया तथा वन्दनीया हैं। उन्हें नारायणी और विष्णुमाया कहते हैं। वे वैष्णवी देवी विष्णुभक्ति देने वाली हैं।

सर्वस्वरूपां सर्वेषां सर्वाधारां परात्पराम् ।

सर्वविद्यासर्वमन्त्रसर्वशक्तिस्वरूपिणीम् ।।१०।।

यह सब कुछ उनका ही स्वरूप है। वे सबकी ईश्वरी, सबकी आधारभूता, परात्परा, सर्वविद्यारूपिणी, सर्वमन्त्रमयी तथा सर्वशक्तिस्वरूपा हैं।

सगुणां निर्गुणां सत्त्वां वरां स्वेच्छामयीं सतीम् ।

महाविष्णोश्च जननीं कृष्णस्यार्द्धाङ्गसम्भवाम् ।।११।।

वे सगुणा और निर्गुणा हैं। सत्यस्वरूपा, श्रेष्ठा, स्वेच्छामयी एवं सती हैं। महाविष्णु की जननी हैं। श्रीकृष्ण के आधे अंग से प्रकट हुई हैं।

कृष्णप्रियां कृष्णशक्तिं कृष्णबुद्ध्यधिदेवताम् ।

कृष्णस्तुतां कृष्णपूज्यां कृष्णवन्द्यां कृपामयीम् ।। १२ ।।

कृष्णप्रिया, कृष्णशक्ति एवं कृष्णबुद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं। श्रीकृष्ण ने उनकी स्तुति, पूजा और वन्दना की है। वे कृपामयी हैं।

तप्तकाञ्चनवर्णाभां कोटिसूर्य्यसमप्रभाम् ।

ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां भक्तानुग्रहकारिकाम् ।। १३ ।।

उनकी अंगकान्ति तपाये हुए सुवर्ण के समान है। उनकी प्रभा करोड़ों सूर्यों की दीप्ति को भी लज्जित करती है। उनके प्रसन्न मुख पर मन्द-मन्द हास्य की छटा छायी हुई है। वे भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये व्याकुल हैं।

दुर्गां शतभुजां देवीं महद्दुर्गतिनाशिनीम् ।

त्रिलोचनप्रियां साध्वीं त्रिगुणां च त्रिलोचनाम् ।। १४ ।।

उनका नाम दुर्गा देवी है। वे सौ भुजाओं से युक्त हैं और महती दुर्गति का नाश करने वाली हैं। त्रिनेत्रधारी महादेव जी की प्रिया हैं। साध्वी हैं। त्रिगुणमयी एवं त्रिलोचना हैं।

त्रिलोचनप्राणरूपां शुद्धार्द्धचन्द्रशेखराम् ।

बिभ्रतीं कबरीभारं मालतीमाल्यमण्डितम् ।। १५ ।।

त्रिलोचन शिव की प्राणरूपा हैं। उनके मस्तक पर विशुद्ध अर्द्धचन्द्र का मुकुट है। वे मालती की पुष्पमालाओं से अलंकृत केशपाश धारण करती हैं।

वर्तुलं वामवक्त्रं च शम्भोर्मानसमोहिनीम् ।

रत्नकुण्डलयुग्मेन गण्डस्थलविराजिताम् ।। १६ ।।

उनका मुख सुन्दर एवं गोलाकार है। वे भगवान शिव के मन को मोहने वाली हैं। रत्नों के युगल कुण्डल से उनके कपोल उद्भासित होते रहते हैं।

नासादक्षिणभागेन बिभ्रतीं गजमौक्तिकम् ।

अमूल्यरत्नं बहुलं बिभ्रतीं श्रवणोपरि ।। १७ ।।

वे नासिका के दक्षिण भाग में गजमुक्ता से निर्मित नथ धारण करती हैं। कानों में बहुसंख्यक बहुमूल्य रत्नमय आभूषण पहनती हैं।

मुक्तापंक्तिविनिन्द्यैकदन्तपंक्तिसुशोभिताम् ।

पक्वबिम्बाधरोष्ठीं च सुप्रसन्नां सुमंगलाम् ।। १८ ।।

मोतियों की पाँत को तिरस्कृत करने वाली दन्तपंक्ति उनके मुख की शोभा बढ़ाती है। पके हुए बिम्बफल के समान उनके लाल-लाल ओठ हैं। वे अत्यन्त प्रसन्न तथा परम मंगलमयी हैं।

चित्रपत्रावलीरम्यकपोलयुगलोज्ज्वलाम् ।

रत्नकेयूरवलयरत्नमञ्जीररञ्जिताम् ।। १९ ।।

विचित्र पत्ररचना से रमणीय उनके कपोल-युगल परम उज्ज्वल प्रतीत होते हैं। रत्नों के बने हुए बाजूबन्द, कंगन तथा रत्नमय मंजीर उनके विभिन्न अंगों का सौन्दर्य बढ़ाते हैं।

रत्नकङ्कणभूषाढ्यां रत्नपाशंकशोभिताम् ।

रत्नांगुलीयनिकरैः करांगुलिचयोज्ज्वलाम् ।। २० ।।

रत्नमय कंकणों से उनके दोनों हाथ विभूषित हैं। रत्नमय पाशक उनकी शोभा बढ़ाते हैं। रत्नमयी अंगूठियों से उनके हाथों की अँगुलियाँ जगमगाती रहती हैं।

पादाङ्गुलिनखासक्तालक्तरेखासुशोभनाम् ।

वह्निशुद्धांशुकाधानां गन्धचन्दनचर्चिताम् ।। २१ ।।

पैरों की अँगुलियों के और नखों में लगे हुए महावर की रेखा उनकी शोभा में वृद्धि करती है। वे अग्निशुद्ध दिव्य वस्त्र धारण करती हैं। उनके विचित्र अंग गन्ध, चन्दन से चर्चित हैं।

बिभ्रतीं स्तनयुग्मं च कस्तूरीबिन्दुशोभितम् ।

सर्वरूपगुणवतीं गजेन्द्रमन्दगामिनीम् ।। २२ ।।

वे कस्तूरी के विन्दुओं से सुशोभित दो स्तन धारण करती हैं। सम्पूर्ण रूप और गुणों से सम्पन्न हैं तथा गजराज के समान मन्द गति से चलती हैं।

अतीव कान्तां शान्तां च नितान्तां योगसिद्धिषु ।

विधातुश्च विधात्रीं च सर्वधात्रीं च शंकरीम् ।। २३ ।।

अत्यन्त कान्तिमया तथा शान्तस्वरूपा हैं। योगसिद्धियों में बहुत बढ़ी-चढ़ी हैं। विधाता की भी सृष्टि करने वाली तथा सबकी माता हैं। समस्त लोकों का कल्याण करने वाली हैं।

शरत्पार्वणचन्द्रास्यामतीव सुमनोहराम् ।

कस्तूरीबिन्दुभिः सार्द्धमधश्चन्दनबिन्दुना ।। २४ ।।

सिन्दूरबिन्दुना शश्वद्भालमध्यस्थलोज्ज्वलाम् ।

शरन्मध्याह्नकमलप्रभामोचनलोचनाम् ।। २५ ।।

शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति उनका परम सुन्दर मुख है। वे अत्यन्त मनोहारिणी हैं। उनके भालदेश का मध्यभाग कस्तूरी-बिन्दु, चन्दन-बिन्दु तथा सिन्दूर-बिन्दु से सदा उद्दीप्त होता रहता है। उनके नेत्र शरदऋतु के मध्याह्नकाल में खिले हुए कमलों की कान्ति को छीन लेते हैं।

चारुकज्जलरेखाभ्यां सर्वतश्च समुज्ज्वलाम् ।

कोटिकन्दर्पलावण्यलीलानिन्दितविग्रहाम् ।। २६ ।।

काजल की सुन्दर रेखाओं से वे सर्वथा सुशोभित होते हैं। उनके श्रीअंग करोड़ों कन्दर्पों की लावण्यलीला को तिरस्कृत करने वाले हैं।

रत्नसिंहासनस्थां च सद्रत्नमुकुटोज्ज्वलाम् ।

सृष्टौ स्रष्टुः शिल्परूपां दयां पातुश्च पालने ।। २७ ।।

वे रत्नमय सिंहासन पर विराजमान हैं। उनका मस्तक उत्तम रत्नों के बने हुए मुकुट से उद्भासित होता है। वे स्रष्टा की सृष्टि में शिल्परूपा और पालक के पालन में दयारूपा हैं।

संहारकाले संहर्त्तुः परां संहाररूपिणीम् ।

निशुम्भशुम्भमथिनीं महिषासुरमर्दिनीम् ।। २८ ।।

संहारकाल में संहारक की उत्तम संहाररूपिणी शक्ति हैं। निशुम्भ और शुम्भ को मथ डालने वाली तथा महिषासुर का मर्दन करने वाली हैं।

पुरा त्रिपुरयुद्धे च संस्तुता त्रिपुरारिणा ।

मधुकैटभयोर्युद्धे विष्णुशक्तिस्वरूपिणीम् ।। २९ ।।

पूर्वकाल में त्रिपुर-युद्ध के समय त्रिपुरारि महादेव ने इनकी स्तुति की थी। मधु और कैटभ के युद्ध में वे विष्णु की शक्तिस्वरूपिणी थीं।

सर्वदैत्यनिहन्त्रीं च रक्तबीजविनाशिनीम् ।

नृसिंहशक्तिरूपां च हिरण्यकशिपोर्वधे ।।३०।।

समस्त दैत्यों का वध तथा रक्तबीज का नाश करने वाली यही हैं। हिरण्यकशिपु के वधकाल में ये नृसिंहशक्तिरूप में प्रकट हुई थीं।

वराहशक्तिं वाराहे हिरण्याक्षवधे तथा ।

परब्रह्मस्वरूपां च सर्वशक्तिं सदा भजे ।। ३१ ।।

हिरण्याक्ष के वधकाल में भगवान वाराह के भीतर वाराही शक्ति यही थीं। ये परब्रह्मरूपिणी तथा सर्वशक्तिस्वरूपा हैं। मैं सदा इनका भजन करता हूँ।

इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे चतुष्षष्टितमाध्याये    दुर्गास्तोत्रं समाप्तम् ॥

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