कार्तवीर्य कवच
भूतल पर कार्तवीर्य सुदर्शनचक्र के
अवतार माने जाते हैं। श्रीबृहन्नारदीयपुराण के पूर्वभाग अध्याय ७७ में वर्णित इस सकल
कामनादायक कार्तवीर्य कवच धन-धान्य, सुख-समृद्धि,पुत्र-पौत्र,ऐश्वर्य देनेवाला, सब
प्रकार के रोगों, कष्टों से मुक्ति दिलानेवाला, पुण्यवर्धक,
सकलपापनाशक, सर्वोपद्रवध्वंसक, अखिलशांतिकारक, समस्त भयनाशन, विजयदायक,
अचल संपत्तिप्रदायक और असाध्य वस्तु को भी सिद्ध करानेवाला है, इस कवच के महत्व का
वर्णन नही किया जा सकता है।
कार्तवीर्य कवचम्
Kartavirya kavach
श्रीकार्तवीर्य कवच स्तोत्र
नारदपुराणम्- पूर्वार्धः/अध्यायः ७७
कार्तवीर्य कवचं
नारद उवाच ।।
साधु साधु महाप्राज्ञ सर्व
तंत्रविशारद ।
त्वया मह्यं समाख्यातं विधानं
तंत्रगोपितम् ।। १ ।।
अधुना तु महाभाग कीर्तवीर्यहनूमतोः
।
कवचे श्रोतुमिच्छामि तद्वदस्वकृपानिधे
।। २ ।।
नारद बोले- महापण्डित !
सकलतंत्रविशारद ! साधु ! साधु ! आपने वह विधान मुझे बतला दिया जो तंत्रों में
गुप्त था। महाभाग ! कृपानिधान ! अब मैं कार्तवीर्यं तथा हनुमान का कवच सुनना चाहता
हूँ,
(कृपपा) बताइए ।
सनत्कुमार उवाच ।।
श्रृणु विप्रेन्द्र वक्ष्यामि कवचं
परमाद्भुतम् ।
कार्तवीर्यस्य येनासौ प्रसन्नः
कार्यसिद्धिकृत् ।। ३ ।।
सनत्कुमार बोले- विप्रवर्य ! सुनो,
मैं कार्तवीर्य का अत्यन्त आश्चर्यजनक कवच सुनाता है, जिसके पाठ से कार्य सिद्धिकर्ता कार्तवीर्यं प्रसन्न हो जाते हैं। पहिले
उनका इस प्रकार ध्यान करे कि-
श्री कार्तवीर्य का ध्यान
सहस्रादित्यसंकाशे
नानारत्नसमुज्ज्वंले ।
भास्वद्ध्वजपताकाढ्ये
तुरगायुतभूषिते ।। ४ ।।
वे अत्यन्त रमणीय रथ पर सुखपूर्वक
बैठे हैं। इस रथ की चमक सहस्र सूर्यो के समान है। अनेक प्रकार के रत्न उसमें जड़े
हैं। प्रकाशमान पताका उस पर फहरा रही है। दश हजार घोडे उसमें जुते हैं ।
महासंवर्तकांभोधिभीमरावविराविणि ।
समुद्धृतमहाछत्र्रवितानितवियत्पथे
।। ५ ।।
महाप्रलय कालीन समुद्र के समान वह
भयंकर शब्द करता है। उस पर तना हुआ महाछत्र ऐसा प्रतीत होता है कि मानो गगनपथ पर
चंदवा लगा दिया गया हो।
महारथवरे दीप्तनानायुधविराजिते ।
सुस्थितं विपुलोदारं
सहस्रभुजमंडितम् ।। ६ ।।
चमकते हुए अनेक अस्त्र-शस्त्रों में
वह सुसज्जित है। वैसे रथ पर बैठनेवाले महा यशस्वी कार्तवीर्य की सहस्त्र भुजायें
हैं।
वामैरुद्दंडकोदंडान्दधानमपरैः शरान्
।
किरीटहारमुकुटकेयूरवलयांगदैः ।। ७
।।
मुद्रिकोदरबन्धाद्यैर्मौंजीनूपुरकादिभिः
।
भूषितं विविधाकल्पैर्भास्वरैः
सुमहाधनैः ।। ८ ।।
वे बांयें हाथों में धनुष तथा
दाहिने में बाण धारण किये हुए हैं। मकुट, हार,
केयूर, अंगद, वलय,
मुद्रिका, कांची नूपुर आदि अनेक बहुमूल्यक तथा
चमकदार आभूषणों से उनके अंग विभूषित है।
आबद्धकवचं वीरं सुप्रसन्नाननांबुजम्
।
धनुर्ज्या सिंहनादेन कंपयंतं जगत्त्रयम्
।। ९ ।।
उन वीर के शरीर में कवच बंधा हुआ
है। उनका मुखकमल सुप्रसन्न है, वे धनुष की
टंकार से तीनों लोक को कंपा रहे हैं ।
सर्वशत्रुक्षयकरं
सर्वव्याधिविनाशनम् ।
सर्वसंपत्प्रदातारं
विजयश्रीनिषेवितम् ।। १० ।।
सर्वसौभाग्यदं भद्रं
भक्ताभयविधायिनम् ।
दिव्यमाल्यानुलेपाढ्यं
सर्वलक्षणसंयुतम् ।। ११ ।।
रथनागाश्वपादातवृंदमध्यगमीश्वरम् ।
वरदं चक्रवर्तीनं सर्वलोकैकपालकम्
।। १२ ।।
समानोदितसाहस्रदिवाकरसमद्युतिम् ।
महायोगभवैश्वर्यकीर्त्याक्रांतजगत्त्रयम्
।। १३ ।।
श्रीमच्चक्रं हरेरंशादवतीर्णं
महीतले ।
सम्यगात्मादिभेदेन ध्यात्वा
रक्षामुदीरयेत् ।। १४ ।।
वे निखिल शत्रुओं का क्षय करने वाले,
समस्त व्याधियों का नाश करने वाले, अखिल
संपत्तियों को देने वाले, विजय लक्ष्मी का उपभोग करने वाले,
सब प्रकार का सौभाग्य देने वाले, कल्याण करने
वाले भक्तों को अभयदान देने वाले दिव्य माला तथा चन्दन से विभूषित, सर्वलक्षण- सम्पन्न, रथ, हाथी,
घोड़े तथा पैदलों के बीच चलनेवाले, स्वामी,
वरदायक, चक्रवर्ती, सकल
लोकों के एकमात्र पालक, समान भाव से सर्वत्र उदित होनेवाले
सहस्र आदित्यों के समान कान्तिमान् महायोग द्वारा प्राप्त ऐश्वर्य तथा कीर्ति से
तीनों लोक को आक्रान्त किये हुए, श्रीमानों के समूहस्वरूप और
भूतल पर हरि के अंश से अवतीर्ण हैं। इस प्रकार आत्मा आदि के भेद से अच्छी तरह
ध्यान कर रक्षा-पाठ करे ।
श्रीकार्तवीर्य कवचम्
अस्यांगमूर्तयः पंच पांतु मां
स्फटिकोज्ज्वलाः ।
अग्नीशासुरवायव्यकोणेषु हृदयादिकाः
।। १५ ।।
सर्वतोस्रज्वलद्रूपा दरचर्मासिपाणयः
।
अव्याहतबलैश्वर्यशक्तिसामर्थ्यविग्रहाः
।। १६ ।।
अग्नि,
ईशान, नैर्ऋत्य तथा वायव्य कोणों में स्फटिक
के समान धवल वर्ण वाली और हृदया आदि नामों वाली कार्तवीर्य की पाँच मूर्तियां,
जिनका रूप जाज्वल्यमान अस्त्र के समान है, जिनके
हाथों में ढाल तलवार विद्यमान हैं और जो अव्याहृत बल, ऐश्वर्य
शक्ति तथा सामर्थ्य की साक्षात् प्रतिमा हैं, मेरी रक्षा
करें।
क्षेमंकरीशक्तियुतश्चौरवर्गविभञ्जनः
।
प्राचीं दिशं रक्षतु मे
बाणबाणासनायुधः ।। १७ ।।
धनुष-बाण रूपी अस्त्रों से सुसज्जित,
चोर समूह के नाशक तथा क्षेमकरी शक्ति से युक्त देव पूर्व दिशा में
मेरी रक्षा करें।
श्रीकरीशक्तिसहितो मारीभयविनाशकः ।
शरचापधरः श्रीमान् दिशं मे पातु
दक्षिणाम् ।। १८ ।।
महामारी के भय को दूर करने वाले,
धनुष-बाण धारण करने वाले श्रीकरी शक्ति सहित श्रीमान् देव दक्षिण
दिशा में मेरी करें ।
महावश्यकरीयुक्तः
सर्वशत्रुविनाशकृत् ।
महेषुचापधृक्पातु मम प्राचेतसीं
दिशम् ।। १९ ।।
सकल शत्रुओं के नाशक,
महाबाण तथा धनुष के धारक और महावश्यकरी-शक्ति से सम्पन्न देव उत्तर
दिशा में मेरी रक्षा करें।
यशःकर्या समायुक्तो दैत्यसंघविनाशनः
।
परिरक्षतु मे सम्यग्विदिशं
चैत्रभानवीम् ।। २० ।।
दैत्य-समूह के ध्वंसक तथा यशःकरी
शक्ति से समन्वित देव पश्चिम रक्षा दिशा में मेरी रक्षा करें।
विद्याकरीसमायुक्तः सुमहहुःखनाशनः ।
पातु मे नैर्ऋतीं
चापपाणिर्विदिशमीश्वरः ।। २१ ।।
महान् दुःख को छुड़ाने वाले और हाथ
में धनुष धारण करने वाले ईश्वर, जो विद्याकरी
शक्ति से युक्त हैं, नैऋत्य दिशा में मेरी रक्षा करें।
धनकर्या समायुक्तो महादुरित नाशनः ।
इष्वासनेषुधृक्पातु विदिशं मम
वायवीम् ।। २२ ।।
महापापों के नाशक,
धनुष-बाणधारी और धनकरी-शक्ति से संवलित देव वायवी दिशा में मेरी
रक्षा करें।
आयुःकर्या युतः
श्रीमान्महाभयविनाशनः ।
चापेषुधारी शैवीं मे विदिशं
परिरक्षतु ।। २३ ।।
धनुष-बाण धारण करने वाले,
महाभय का नाश करने वाले और आयु:करी शक्ति से युक्त होने वाले
श्रीमान् देव शैवी दिशा में मेरी रक्षा करें।
विजयश्रीयुतः साक्षात्सहस्रारधरो
विभुः ।
दिशमूर्द्ध्वामवतु मे
सर्वदुष्टभयंकरः ।। २४ ।।
सकल दुष्टों के लिये भयंकर,
सहस्रारधारी एवम् विजयश्रीसंपन्न विभु ऊर्ध्वं दिशा में मेरी रक्षा
करें ।
शंखभृत्सुमहाशक्तिसंयुतोऽप्यधरां
दिशम् ।
परिरक्षतु मे
दुःखध्वांतसम्भेदभास्करः ।। २५ ।।
दुःख रूपी अन्धकार को हटाने के लिये
सूर्यरूप शंखधारी तथा महाशक्ति संपन्न देव अधो दिशा में मेरी रक्षा करें।
महायोगसमायुक्तः सर्वदिक्चक्रमंडलः
।
महायोगीश्वरः पातु सर्वतो मम
पद्मभृत् ।। २६ ।।
महायोग से युक्त,
संपूर्ण दिक्चक्र के लिये मण्डलाकार, महायोगीश्वर
तथा पद्मधारी देव सब ओर से मेरी रक्षा करें।
एतास्तु मूर्तयो रक्ता
रक्तमाल्यांशुकावृताः ।
प्रधानदेवतारूपाः पृथग्रथवरे
स्थिताः ।। २७ ।।
रक्तवर्णा, रक्त वस्त्र तथा माला
धारण करने वाली और प्रधान देवतारूप ये मूर्तियां अलग-अलग रथ पर अवस्थित है।
शक्तयः पद्महस्ताश्चत
नीलेंदीवरसन्न्निभाः ।
शुक्लमाल्यानुवसनाः
सुलिप्ततिलकोज्ज्वलाः ।। २८ ।।
तत्पार्शदेश्वराः
स्वस्ववाहनायुधभूषणाः ।
स्वस्वदिक्षु स्थिताः पांतु
मामिंद्राद्या महाबलाः ।। २९ ।।
एतस्तस्य समाख्याताः सर्वावरणदेवताः
।
सर्वतो मां सदा पातुं
सर्वशक्तिसमन्विताः ।। ३० ।।
इन्द्रादि महाबलशालिनी शक्तियाँ,
जिनके हाथों में कमलपुष्प हैं, जिनकी कांति
नील कमल के समान है, जो श्वेत माला तथा वस्त्र पहनती हैं,
जो सुन्दर लेप तथा तिलक से उज्ज्वल हैं और जो पार्षदों की स्वामिनी
कहलाती हुई अपने-अपने वाहनों, आयुधों एवम् आभूषणों से
सुसज्जित हैं अपनी-अपनी दिशा में मेरी रक्षा करें। ये उन कार्तवीर्य की आवरण देवता
कहलाती हैं। ये सर्वशक्तिसंपन्ना होकर सब ओर से सदा मेरी रक्षा करें।
हृदये चोदरे नाभौ जठरे गुह्यमण्डले
।
तेजोरूपाः स्थिताः पातुं वांछासुरवनद्रुमाः
।। ३१ ।।
तेजो रूप से अवस्थित तथा कल्पद्रुम
के समान कामना पूर्ण करनेवाली ये देवियाँ मेरे हृदय, उदर, नाभि एवम् गुह्यप्रदेश में रक्षा करें।
दिशं चान्ये महावर्णा मन्त्ररूपा
महोज्ज्वलाः ।
व्यापकत्वेन पांत्वस्मानापादतलमस्तकम्
।। ३२ ।।
अन्य जो मंत्ररूपा सुस्वरूपा तथा
अत्यन्त धवल देवियाँ हैं, वे सब दिशाओं में
व्यापक रूप से मेरी रक्षा करती हुई चरण से लेकर मस्तक तक मेरी रक्षा करें।
कार्तवीर्यः शिरः पातु ललाटं
हैहयेश्वरः ।
सुमुखो मे मुखं पातु कर्णौ
व्याप्तजगत्त्रयः ।। ३३ ।।
सुकुमारो हनुं पातु भ्रूयुगं मे
धनुर्धरः ।
नयनं पुंमडरीकाक्षगो नासिकां मे
गुणाकरः ।। ३४ ।।
अधरोष्ठौ सदा पातु ब्रह्ज्ञेयो
द्विजान्कविः ।
सर्वशास्त्रकलाधारी जिह्वां
चिबुकमव्ययः ।। ३५ ।।
दत्तात्रेयप्रियः कंठं स्कंधौ
राजकुलेश्वरः ।
भुजौ दशास्यदर्पघ्नो हृदयं मे
महाबलः ।। ३६ ।।
कुक्षिं रक्षतु मे विद्वान् वक्षः
परपुरंजयः ।
करौ सर्वार्थदः पातुकराग्राणि
जगत्प्रियः ।। ३७ ।।
रेवांबगुलीलासंहप्तो जठरं परिरक्षतु
।
वीरशूरस्तु मे नाभिं पार्श्वौ मे
सर्वदुष्टहा ।। ३८ ।।
सहस्रभुजनृत्पृष्टं सप्तद्वीपाधिपः
कटिम् ।
ऊरू माहिष्मतीनाथो जानुनी वल्लभो
भुवः ।। ३९ ।।
जंघे वीराधिपः पातु पातु पादौ
मनोजवः ।
पातु सर्वायुधधरः सर्वांगं
सर्वमर्मसु ।। ४० ।।
सर्वदुष्टांतकः पातु
धात्वष्टककलेवरम् ।
प्राणादिदशजीवेशान्सर्वशिष्टेष्टदोऽवतु
।। ४१ ।।
वशीकृतेंद्रियग्रामः पातु
सर्वेन्द्रियाणि मे ।
कार्तवीर्य मेरे शिर की रक्षा करें।
हैहयेश्वर ललाट की, सुमुख मुख की और
जगद्व्यापी कानों की रक्षा करें। सुकुमार कनपटी की, धनुर्धर
दोनों भौंहो की, पुण्डरीकाक्ष नेत्र की, गुणाकर नाक की, ब्रह्मज्ञेय अधर की, कवि ओष्ठ की, सकल शास्त्रों एवम् कलाओं का धारण करने
वाले जिह्वा की, अव्यय ठुड्डी की, दत्तात्रेयप्रिय
शूर कण्ठ की, राजकुलेश्वर स्कंधों की, रावणदर्पविनाशक भुजाओं
की, महाबल हृदय की, विद्वान् कुक्षि की,
परपुरंजय छाती की, सकलकामनादायक हाथों की,
जगत्प्रिय करांगुलियों की, रेवा के जल में
विहार करनेवाले पेट की, वीरशुर नाभि की, समस्त दुष्टों के
निहन्ता पार्श्वो की, सहस्र भुजाओं का धारण करने वाले पीठ की,
सातों द्वीपों के अधीश्वर कटि की, माहिष्मतीनाथ
ऊरुओं की, भूवल्लभ जानुओं की, वीरपति
जंघाओं की, मनोजव चरणों की, सर्वायुधधारी
मर्म स्थलसहित सकल अंगों को निखिल दुष्टों के नाशक अष्टधातु सहित संपूर्ण कलेवर की
समस्त उचित अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले प्राण आदि दश जीवेशों की ओर इन्द्रिय
समूह को जीतनेवाले सकल इन्द्रियों की रक्षा करें।
अनुक्तमपि यत्स्थान शरीरांतर्बहिश्च
यत् ।। ४२ ।।
तत्सर्वं पातु मे
सर्वलोकनाथेश्वरेश्वरः ।
वज्रात्सारतरं चेदं शरीरं कवचावृतम्
।। ४३ ।।
बाधाशतविनिर्मुक्तमस्तु मे
भयवर्जितम् ।
जिस स्थान के बारे में मैंने नहीं
कहा या जो प्रदेश शरीर के भीतर तथा बाहर हैं, उन
सब की रक्षा मन लोक- नाथेश्वर ईश्वर करें। इस कवच से आवृत मेरा शरीर वज्र से भी
कठोर (अर्थात् अभेद्य), विविध बाधाओं से रहित एवम् भय से
वर्जित हो।
बद्धेदं कवचं दिव्यमभेद्यं
हैहयेशितुः ।। ४४ ।।
विचरामि दिवा रात्रौ
निर्भयेनांतरात्मना ।
कार्तवीर्य के इस अभेद्य तथा दिव्य
कवच को शरीर में बांधकर मैं दिन-रात विचरण करता रहूँ। इससे मेरी अन्तरात्मा निर्भीक हो गई है।
राजमार्गे महादुर्गे मार्गे चौरा
दिसंकुले ।। ४५ ।।
विषमे विपिने घोरे दावाग्नौ
गिरिकंदरे ।
संग्रामे शस्त्रसंघाते
सिंहव्याघ्रनिषेविते ।। ४६ ।।
गह्वरे सर्वसंकीर्णे संध्याकाले
नृपालये ।
विवादे विपुलावर्ते समुद्रे च नदीतटे
।। ४७ ।।
परिपंथिजनाकीर्णे देशे दस्युगणावृते
।
सर्वस्वहरणे प्राप्ते प्राप्ते
प्राणस्य संकटे ।। ४८ ।।
नानारोगज्वरावेशे पिशाचप्रेतयातने ।
मारीदुःस्वप्नपीडासु क्लिष्टे
विश्वासघातके ।। ४९ ।।
शारीरे च महादुःखे मानसे च महाज्वरे
।
आधिव्याधिभये विघ्नज्वालोपद्रवकेऽपि
च ।। ५० ।।
न भवतु भयं किंचित्कवचेनावृतस्य मे
।
इस कवच से आवृत मुझको राज मार्ग, महाभयंकर मार्ग, चोरादि से व्याप्त मार्ग, घोर जंगल, भयानक दावाग्नि, पर्वतों
की गुफा, संग्राम, शस्त्रप्रहार,
सिंह तथा व्याघ्र आदि से परिव्याप्त पर्वतप्रान्त, संध्याकाल, नृपालय, विवाद,
विपुल तरंगों से युक्त समुद्र नदी तट, शत्रु
एवम् चोरों से आवृत देश, सर्वस्व अपहरण, प्राणसंकट, अनेक प्रकार के रोग एवम ज्वर के आक्रमण,
पिशाच तथा प्रेत की यातना, महामारी तथा
दुःस्वप्न की पीड़ा, विश्वासघातजन्य क्लेश, शारीरिक महा- दुःख, मानसी पीड़ा, महाज्वर, आधि, व्याधि, विघ्न, ज्वालोपद्रव आदि का लेश मात्र भी भय न हो ।
आंगुतुकामानखिलानस्मद्वसुविलुंपकान्
।। ५१ ।।
निवारयतु दोर्दंडसहस्रेण महारथः ।
स्वकरोद्धृतसाहस्रपाशबद्धान्सुदुर्जयान्
।। ५२ ।।
संरुद्धूगतिसामर्थ्यान्करोतु
कृतवीर्यजः ।
सृणिसाहस्रनिर्भिन्नान्सहस्रशरखंडितान्
।। ५३ ।।
राजचूडामणिः क्षिप्रं
करोत्वस्मद्विरोधकान् ।
खङ्ग
साहस्रदलितान्सहस्रमुशलार्दितान् ।। ५४ ।।
महारथी कार्तवीर्य अपने सहस्र
भुजदण्ड से मेरे धन लूटने के लिये आने वाले दस्युओं का निवारण करें। कार्तवीर्य के
पुत्र मेरे अत्यन्त दुर्जय शत्रुओं को सहस्रों पाशों में बांध कर निश्चेष्ट कर
दें। राजशिरोमणि (कार्तवीर्य) मेरे विरोधियों को शीघ्र सहस्रों अंकुशों से
छिन्न-भिन्न करें, सहस्रों बाणों से
विद्ध करें। हजारों तलवारों से खंडित करें और सहस्रों मुसलों से पीडित करें।
चौरादि दुष्टसत्त्वौघान्करोतु
कमलेक्षणः ।
स्वशंखनादसंत्रस्तान्सहस्रारसहस्रभृत्
।। ५५ ।।
अवतारो हरेः साक्षात्पालयत्वखिलं मम
।
सहस्रों सहस्र दल कमल धारण करनेवाले
कमलाक्ष सहस्रार्जुन चोर आदि दुष्ट जीवों को अपने शंख के नाद से भयभीत करें। हरि
के साक्षात् अवतार रूप कार्तवीर्य मेरी सब तरह से रक्षा करें।
कार्तवीर्य महावीर्य
सर्वदुष्टविनाशन ।। ५६ ।।
सर्वत्र सर्वदा दुष्टचौरान्नाशाय
नाशय ।
किं त्वं स्वपिषि दुष्टघ्न किं
तिष्टसि चिरायासि ।। ५७ ।।
उत्तिष्ठ पाहि नः सर्वभयेभ्यः
स्वसुतानिव ।
कार्तवीर्य ! महाशक्तिशालिन् !
निखिल दुष्टविनाशक ! सबकाल, सब जगह दुष्टों
एवम् चोरों का नाश कीजिए । दृष्टों के मारने वाले ! क्या आप सो रहे हैं ? कहाँ खड़े हैं ? क्यों विलम्ब कर रहे हैं ? उठिये, अपने पुत्रों की तरह मुझे सब प्रकार के भयों
से बचाइए।
ये चौरा वसुहर्तारो विद्विषो ये च
हिंसकाः ।। ५८ ।।
साधुभीतिकरा दुष्टाश्छद्मका ये
दुराशयाः ।
दुर्हृदो दुष्टभू पाला
दुष्टामात्याश्च पापकाः ।। ५९ ।।
ये च कार्यविलोप्तोरो ये खलाः
परिपंथिनः ।
सर्वस्वहारिणां ये च पंच
मायाविनोऽपरेः ।। ६० ।।
महाक्लेशकरा म्लेच्छा दस्यवो
वृषलाश्च ये ।
येऽग्निदा गरदातारो वंचकाः शस्त्रपाणयः
।। ६१ ।।
ये पापा दुष्टकर्माणो दुःखदा
दुष्टबुद्धयः ।
व्याजकाः कुपथासक्ता ये च
नानाभयप्रदाः ।। ६२ ।।
छिद्रान्वेषरता नित्यं
येऽस्मान्बाधितुमुद्यताः ।
ते सर्वे कार्तवीर्यस्य
महाशंखरवाहताः ।। ६३ ।।
सहसा विलयं यान्तु दूरदिव विमोहिताः
।
जिसने चोर,
धनहर्ता, द्वेष करने वाले, हिंसक, साधुओं को सताने वाले, दुष्ट,
कपटी, दूषित हृदय वाले, दुष्ट
विचार वाले, दुष्ट राजा, दुष्ट मन्त्री,
पापी, कार्यध्वंसक, खल,
शत्रु, सर्वस्वहारी, मायावी, महादुःखदायक,
म्लेच्छ, दस्यु, शूद्र,
आग में डालने वाले विष देने वाले, वंचक,
शस्त्रजीवी, सूदखोर, कुपथगामी,
लोगों को डराने वाले, छिद्रान्वेषी तथा हमें
बाधा पहुँचाने वाले हैं, वे कार्तवीर्य के महाशंखध्वनि से
निहत हो और दूर ही से मोहित होकर विनष्ट हो जायें ।
ये दानवा महादित्या ये यक्षा ये च
राक्षसाः ।। ६४ ।।
पिशाचा ये महासत्त्वा ये भूतब्रह्मराक्षसाः
।
अपस्मारग्रहा ये च ये ग्रहाः
पिशिताशनाः ।। ६५ ।।
महालोहितभोक्तारो वेताला ये च
गुह्यकाः ।
गंधर्वाप्सरसः सिद्धा ये च
देवादियोनयः ।। ६६ ।।
डाकिन्यो द्रुणसाः प्रेताः
क्षेत्रपाला विनायकाः ।
महाव्याघ्रमहामेघा महातुरागरूपकाः
।। ६७ ।।
महागजा महासिंहा महामहिषयोनयः ।
ऋक्षवाराहशुनकवानरोलूकमूर्तयः ।। ६८
।।
महोष्ट्रखरमार्जारसर्पगोवृषमस्तकाः
।
नानारूपा महासत्त्वा
नानाक्लेशसहस्रदाः ।। ६९ ।।
नानारोगकराः क्षुद्रा महावीर्या
महाबलाः ।
वातिकाः पैत्तिका घोरा श्लैष्मिकाः
सान्निपातिकाः ।। ७० ।।
माहेश्वरा वैष्णवाश्च वैरिंच्याश्च
महाग्रहाः ।
स्कांदा वैनायकाः क्रूरा ये च
प्रमथगुह्यकाः ।। ७१ ।।
महाशत्रुहा रौद्रा महामारीमसूरिकाः
।
ऐकाहिका व्द्याहिकाश्च
त्र्याहिकाश्च महाज्वराः ।। ७२ ।।
चातुर्थिकाः पाक्षिकाश्च मास्याः
षाण्मासिकाश्च ये ।
सांवत्सरा दुर्निवार्या ज्वराः
परमदारुणाः ।। ७३ ।।
स्वाप्निका ये महोत्पाता ये च
दुःस्वाप्निका ग्रहाः ।
कूष्मांडा जृंभिका भौमा द्रोणाः
सान्निध्यवंचकाः ।। ७४ ।।
भ्रमिकाः प्राणहर्तारो ये च
बालग्रहादयः ।
मनोबुद्वीन्द्रियहराः स्फोटकाश्च
महाग्रहाः ।। ७५ ।।
महाशना बलिभुजो महाकुणपभोजनाः ।
दिवाचरा रात्रिचरा ये च संध्यासु
दारुणाः ।। ७६ ।।
प्रमत्ता वाऽप्रमत्ता वै ये मां
बाधितुमुद्यताः ।
ते सर्वे कार्त्तवीर्यस्य
धनुर्मुक्तशराहताः ।। ७७ ।।
सहस्रधा प्रणश्यंतु
भग्नसत्त्वबलोद्यमाः ।
दानव, महादैत्य, यक्ष, राक्षस,
पिशाच, भयानक जीव, भूत,
ब्रह्मराक्षस, अपस्मारग्रह, मांसाहारी तथा महाशोणितभक्षी, बेताल, गुह्य, गंधर्व, अप्सरोगण, सिद्धगण,
देवयोनि, डाकिनी, द्रुणस(एक
गण, जिनकी बड़ी-बड़ी नाक होती है।), प्रेत,
क्षेत्रपाल, विनायकगण, महाव्याघ्र, महामेघ, महाअश्व, महागज,
महासिंह, महामहिष, रीछ,
शूकर, कुत्ता, बन्दर तथा
उल्लू के समान आकृति वाले, ऊँट, गधा,
बिलार, सांप, गाय तथा
बैल के सदृश शिर वाले, अनेक रूप वाले हजारों प्रकार के क्लेश
देने वाले, अनेक तरह के रोग उत्पन्न करने वाले, क्षुद्र, महाशक्तिशाली, महाबली,
बात रोग देने वाले, पित्तव्याधि देने वाले,
घोररूप, कफ रोग देने वाले, सन्निपात रोग देने वाले, माहेश्वरग्रह, वैष्णवग्रह,
विरंचिग्रह, स्कंदग्रह, गणेशग्रह,
क्रूरग्रह, प्रथमगुह्यक, महाशत्रुग्रह, रुद्रग्रह, महामारीग्रह,
मसूरिकाग्रह, एक दिन वाले, दो दिन वाले
तथा तीन दिन वाले, महाज्वर, चार दिन वाले, पाक्षिक, मासिक, षाण्मासिक तथा
वार्षिक परम दारुण एवम् दुर्निवार ज्वर, स्वप्न में होने
वाले महा उत्पान, दुःस्वप्निक ग्रह, कुष्मांड,
जृभिक, भौम, द्रोण,
सानिध्यवंचक, भ्रमिक, प्राणहर्ता
बालग्रह, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियहारी ग्रह,
स्फोटकग्रह, महाग्रह, बहुत खाने वाले,
बलि खाने वाले, शव खाने वाले, दिनचर, निशाचर, संध्याचर,
दारुण, प्रमत्त या अप्रमत्त ग्रह मुझे कष्ट
देने के लिये तैयार हैं, वे कार्तवीर्य के धनुर्मुक्त शरों
से आहत होकर हजारों खंडों में विभक्त हो जायें ।
ये सर्पा ये महानागा
महागिरिबिलेशयाः ।। ७८ ।।
कालव्याला महादंष्ट्रा महाजगरसंज्ञकाः
।
अनंतशूलिकाद्याश्च
दंष्ट्राविषमहाभयाः ।। ७९ ।।
अनेकशत शीर्षाश्च खंडपुच्छाश्च
दारुणाः ।
महाविषजलौकाश्च वृश्चिका
रुक्तपुच्छकाः ।। ८० ।।
आशीविषाः कालकूटा महाहालाहलाह्वयाः
।
जलसर्पा जलव्याला जलग्राहाश्च
कच्छपाः ।। ८१ ।।
मत्स्यका विषपुच्छाश्च ये चान्ये
जलवासिनः ।
जलजाः स्थलजाश्चैव कृत्रिमाश्च
महाविषाः ।। ८२ ।।
गुप्तरूपा गुप्तविषा मूषिका
गृहगोधिकाः ।
नानाविषाश्च ये घोरा
महोपविषसंज्ञकाः ।। ८३ ।।
येऽस्मान्बाधितुमिच्छंति
शरीरप्राणनाशकाः ।
ते सर्वे कार्तवीर्यस्य
खङ्कसाहस्रदारिताः ।। ८४ ।।
दूरादेव विनश्यंतु
प्रणष्टेंद्रियसाहसाः ।
मनुष्याः पशवो त्वृक्षवानरा
वनगोचराः ।। ८५ ।।
सिंहव्याघ्रवराहाश्च महिषा ये
महामृगाः ।
गजास्तुरंगा गवया रासभाः शरभा वृकाः
।। ८६ ।।
शुनका द्वीपिनः शुभ्रा मार्जारा
बिललोलुपाः ।
श्रृगालाः शशकाः श्येना गुरुत्मन्तो
विहंगमाः ।। ८७ ।।
भेरुंडा वायसा गूध्रा हंसाद्याः
पक्षिजातयः ।
उद्भिज्जाश्चांडजाश्चैव स्वेदजाश्च
जरायुजाः ।। ८८ ।।
नानाभेदकुले जाता नानाभेदाः
पृथग्विधाः ।
येऽस्मान्बाधितुमिच्छंति सेध्यासु च
दिवा निशि ।। ८९ ।।
ते सर्वे कार्तवीर्यस्य
गदासाहस्रदारिताः ।
दूरादेव विनश्यंतु विनष्टगतिपौरुषाः
।। ९० ।।
ये चाक्षेमप्रदातारः कूटमायाविनश्च
ये ।
मारणोत्सादनोन्मूलद्वेषमोहनकारकाः
।। ९१ ।।
विश्वास घातका दुष्टा ये च
स्वामिद्रुहो नराः ।
ये चाततायिनो दुष्टा ये पापा
गोप्यहारिणः ।। ९२ ।।
दाहोपद्यातगरलशस्त्रपातातिदुःखदाः ।
क्षेत्रवित्तादिहरणबंधनादिभयप्रदाः
।। ९३ ।।
ईतयो विविधाकारो ये चान्ये
दुष्टजातयः ।
पीडाकरा ये सततं छिद्रमिच्छंति
बाधितुम् ।। ९४ ।।
ते सर्वे कार्तवीर्यस्य
चक्रसाहस्रदारिताः ।
दूरादेव क्षयं यांतु विनष्टबलसाहसाः
।। ९५ ।।
उनके बल,
वीर्य, पराक्रम भी भग्न हों। जो सर्प, महानाग, महापर्वत के बिल में सोने वाले, कालव्याल, महादंष्ट्रा वाले, महाअजगर
नाम वाले, अनंत, शूलिक, दंष्ट्रा और विष के कारण महाभयानक दीखने वाले, सैकड़ों
फण वाले, कटे पूंछ वाले, दारुण स्वरूप
वाले, महाविष वाले जोंक, बिच्छू,
लाल पूछ वाले सांप, कालकूट, महाहलाहल नाम वाले
सांप, जलसर्प, जलब्याल, जलग्रह, कच्छप, मत्स्य,
विष एवम् पुच्छ वाले अन्य जलवासी जीव, जलज,
स्थलज, कृत्रिम, महाविष
वाले, गुप्त रूप वाले, गुप्त विष वाले,
चूहे, छिपकली, नानाविषसंज्ञक,
महोपविषसंज्ञक तथा शरीर एवम् प्राणों के नाशक जीव हमें पीड़ा देना
चाहते हैं, वे पहले ही कार्तवीर्य के खङ्ग से सहस्र टुकड़े
होकर इन्द्रिय तथा साहस सहित नष्ट हो जायें। जो मनुष्य, पशु,
बन्दर, भील, सिंह,
वाघ, सूअर, भैस, हिरन, हाथी, घोड़े, नीलगाय, गधे, ऊंट, भेड़िये, कुत्ते, चीते,
बाज, गरुड, भेरुंड,
कौए गीध तथा हंस आदि पक्षी, उद्भिज्ज, अंडज, स्वेदन तथा जरायुज जीव और भिन्न-भिन्न योनियों
में उत्पन्न नाना भेद वाले जीव दिन रात एवम् संध्या समय मुझे कष्ट देना चाहते हैं,
वे कार्तवीर्य की गदा से सहस्रधा खंडित होकर गति-पौरुष सहित विनष्ट
हो जायें। जो अमंगलकारी, कूटमायावी, मारण,
मोहन, उच्चाटन तथा विद्वेष कराने वाले
विश्वासघाती, दुष्ट, स्वामी से द्रोह
करने वाले, आततायी, पापी, गुप्तधन चुराने वाले, आग लगाने वाले, अवघात करने वाले, विष देने वाले, शस्त्रप्रहार करने वाले, अत्यन्त दुःख देने वाले,
खेत, वित्त आदि का हरण करने वाले, बंधन आदि का भय देने वाले विविधाकार वाली ईतियाँ ("अतिवृष्टिरनावृष्टिः
शलभाः मूषिकाः खगाः । अत्यासन्नाश्च राजानः षडेता ईतयः स्मृताः ।" ये छहों
ईतियाँ कृषि का नाश करती हैं।), अन्य दुष्ट जातियां और पीड़ा
देने वाले तथा छिद्रान्वेषण करने वाले जीव मुझे बाधित करना चाहते हैं वे
कार्तवीर्य के चक्र से सहस्रधा विदीर्ण होकर बल एवम् साहस सहित नष्ट हो जायें।
ये मेघा ये महावर्षा ये वाता याश्च
विद्युतः ।
ये महाशनयो दीप्ता ये निर्घाताश्च
दारुणाः ।। ९६ ।।
उल्कापाताश्च ये घोरा ये
महेंद्रायुधादयः ।
सूर्येंदुकुजसौम्याश्च
गुरुकाव्यशनैश्चराः ।। ९७ ।।
राहुश्च केतवो घोरा नक्षत्रा
राशयस्तथा ।
तिथयः संक्रमा मासा हायना युगनायकाः
।। ९८ ।।
मन्वंतराधिपाः सिद्धा ऋषयो
योगसिद्धयः ।
निधयो ऋग्यजुःसामाथर्वाणश्चैव
वह्नयः ।। ९९ ।।
ऋतवो लोकपालाश्च पितरो देवसंहतिः ।
विद्याश्चैव चतुःषष्टिभेदा या
भुवनत्रये ।। १०० ।।
ये त्वत्र कीर्तिताः सर्वे चये
चान्ये नानुकीर्तिताः ।
ते संतु नः सदा सौम्याः
सर्वकालसुखावहाः ।। १०१ ।।
आज्ञया कार्तवीर्यस्य
योगीन्द्रस्यामितद्युतेः ।
मेघ, महावर्षा, विद्युत्, महावज्र,
भयंकर निर्घात, उल्कापात, इन्द्रधनुष, सूर्य, चन्द्रमा, मंगल,
बुध, बृहस्पति, शुक्र,
शनि, राहु, केतु,
नक्षत्र, राशि, तिथि,
संक्रान्ति, मास, वर्ष,
युगनायक, मन्वन्तराधीश, सिद्धि,
ऋषि, योगसिद्धि, निधि,
ऋक्, यजु, साम, अथर्व वह्नि ऋतु लोकपाल, पितर देवगण, विद्या, चौंसठ कला और जो कहे गये और जो न भी कहे गये,
वे (देवादि) महातेजस्वी, योगीन्द्र कार्तवीर्य
की आज्ञा से मेरे लिये सब काल में सुखदायक हों।
कार्तवीर्य कवच स्तोत्रम्
श्री कार्तवीर्य १०८ नाम
कार्तवीर्यार्जुनो धन्वी राजेन्द्रो
हैहयेश्वरः ।। १०२ ।।
दशास्यदर्पहा रेवालीलादृप्तकः
सुदुर्जयः ।
दुःखहा चौरदमनो राजराजेश्वरः प्रभुः
।। १०३ ।।
सर्वज्ञः सर्वदः श्रीमान्
सर्वशिष्टेष्टदः कृती ।
राजचूडामणिर्योगी सप्तद्वीपाधिनायकः
।। १०४ ।।
विजयी विश्वजिद्वाग्मी
महागतिरलोलुपः ।
यज्वा विप्रप्रियो विद्वान्
ब्रह्मज्ञेयः सनातनः ।। १०५ ।।
माहिष्मतीपतिर्योधा
महाकीर्तिर्महाभुजः ।
सुकुमारो महावीरो मारीघ्नो
मदिरेक्षणः ।। १०६ ।।
शत्रुघ्नः शाश्वतः शूरः शँखभृद्योगिवल्लभः
।
महाभागवतो धीमान्महाभयविनाशनः ।। १०७
।।
असाध्यी विग्रहो दिव्यो भावो
व्याप्तजगत्त्रयः ।
जितेंद्रियो जितारातिः
स्वच्छंदोऽनंतविक्रममः ।। १०८ ।।
चक्रभृत्परचक्रघ्नः
संग्रामविधिपूजितः ।
सर्वशास्त्रकलाधरी विरजा लोकवंदितः
।। १०९ ।।
वीरो विमलसत्त्वाढ्यो महाबलपराक्रमः
।
विजयश्रीमहामान्यो
जितारिर्मंत्रनायकः ।। ११० ।।
खङ्गभृत्कामदः कांतः कालघ्नः
कमलेक्षणः ।
भद्रवादप्रियो वैद्यो विबुधो वरदो
वशी ।। १११ ।।
महाधनो निधिपतिर्महायोगी गुरुप्रियः
।
योगाढ्यः सर्वरोगघ्नो
राजिताखिलभूतलः ।। ११२ ।।
दिव्यास्त्रभृदमेयात्मा सर्वगोप्ता
महोज्ज्वलः ।
सर्वायुधधरोऽभीष्टप्रदः परपुरंजयः
।। ११३ ।।
योगसिद्धो महाकायो महावृंदशताधिपः ।
सर्वज्ञाननिधिः
सर्वसिद्ध्विदानकृतोद्यमः ।। ११४ ।।
इत्यष्टशतनामोत्त्या मूर्तयो दश
दिक्पथि ।
सम्यग्दशदिशो व्याप्य पालयंतु च मां
सदा ।। ११५ ।।
कार्तवीर्यार्जुन,
धन्वी, राजेन्द्र, हैहयेश्वर
रावणदर्पहन्ता, रेवा में क्रीडासक्त, सुदुर्जय,
सर्वदाता श्रीमान्, सकलेष्टदायक, कृती, राजचूडामणि, योगी,
सप्तद्वीपपति, विजयी, विश्वजित्,
वाग्मी, महागति, अलोलुप,
यज्वा, विप्रप्रिय, विद्वान ब्रह्मज्ञेय,
सनातन माहिष्मतीपति, योधा, महाकीर्ति, महाभुज, सुकुमार,
महावीर, मारीघ्न, मदिरेक्षण,
शत्रुघ्न, शाश्वत, शूर, भृत्,
योगिवल्लभ, महाभागवत, धीमान्,
महाभयनाशी, असाध्यशरीर, दिव्य-भाव,
व्याप्तजगत्त्रय, जितेन्द्रिय, जितशत्रु,
स्वच्छंद, अनंतविक्रम, चक्रभृत्,
परचक्रघ्न, संग्रामविधिपूजित, सर्वशास्त्रकलाधारी, वीतराग, लोकवंदित
वीर, विमलसत्वसंपन्न महानल तथा पराक्रमशाली, विजयश्री विभूषित, मन्त्रनायक, खङ्गधारी, कामद, कांत, कालघ्न,
कमलेक्षण, भद्रवादप्रिय, वैद्य, विबुध, वरद, वशी, महाधन, निधिपति, महायोगी, गुरुप्रिय, योगसंपन्न,
सर्वरोगनाशक, संपूर्ण भूतल पर विराजमान दिव्यास्त्र धारण
करने वाले, अप्रमेयात्मा सर्वगोप्ता, महोज्ज्वल,
सर्वायुधधारी, अभीष्टदायक, शत्रुंजय,
योगसिद्ध, महाकाय, सैकड़ों
महागणों के स्वामी, सर्वज्ञाननिधि, सकलसिद्धि-
दायक -- ये एक सौ आठ नामों वाली मूर्तियां दशो दिशाओं को व्याप्त कर सदा मेरा पालन
करें ।
स्वस्थाः सर्वेन्द्रियाः संतुं
शांतिरस्तु सदा मम ।
शेषाद्या मूर्तयोऽष्टौ च विक्रमेणैव
भास्वराः ।। ११६ ।।
अग्निनिर्ऋतिवाय्वीशकोणगाः पांतु
मां सदा ।
मेरी समस्त इन्द्रियाँ स्वस्थ हों।
मुझे सदा शान्ति मिले। कार्तवीर्य की शेष आदि आठ मूर्तियां, जो अत्यन्त चमकती है,
अग्नि, निर्ऋति, वायु तथा ईशान कोण में मेरी
रक्षा करें।
मम सौख्यमसंबाधमारोग्यमपराजयः ।।
११७ ।।
दुःखहानिरविघ्नश्च प्रजावृद्धिः
सुखो दयः ।
वांछाप्तिरतिकल्याणमवैषम्यमनामयम्
।। ११८ ।।
अनालस्यमभीष्टं
स्यान्मृत्युहानिर्बलोन्नतिः ।
भयहानिर्यशः कांतिर्विद्या
ऋद्धिर्महाश्रियः ।। ११९ ।।
अनष्टद्रव्यता चैव नष्टस्य पुनरागमः
।
दीर्घायुष्यं मनोहर्षः
सौकुमार्यमभीप्सितम् ।। १२० ।।
अप्रधृष्यतमत्वं च महासामर्थ्यमेव च
।
संतु मे कार्तवीर्य्यस्य हैहयेंद्रस्य
कीर्तनात् ।। १२१ ।।
मुझे निर्विच्छिन्न सुख,
आरोग्य, अपराजय दुःखहानि, अविघ्न, प्रजावृद्धि, सुखोदय,
इच्छाप्राप्ति, अतिकल्याण, अवैषम्य, अनामय, अनालस्य,
अभीष्टसिद्धि, मृत्युहानि, बलोन्नति, भयहानि, यश, कांति, विद्या, ऋद्धि, महाश्री,
अनष्टद्रव्यता, नष्ट द्रव्यों की पुनः
प्राप्ति, दीर्घायु, मन का उल्लास,
सौकुमार्य, अधूष्टता और महासामर्थ्य
हैहयेन्द्र के कीर्तन से प्राप्त हों ।
कार्तवीर्य कवच महात्म्य
य इदं कार्तवीर्य्यस्य कवच
पुण्यवर्द्धनम् ।
सर्वपापप्रशमनं सर्वोपद्रवनाशनम् ।।
१२२ ।।
सर्वशांतिकरं गुह्यं समस्तभयनाशनम्
।
विजयार्थप्रदं नॄणां सर्वसंपत्प्रदं
शुभम् ।। १२३ ।।
श्रृणुयाद्वा पठेद्वापि
सर्वकामानवाप्नुयात् ।
जो कोई इस कार्तवीर्य के पुण्यवर्धक,
सकलपापनाशक, सर्वोपद्रवध्वंसक, अखिलशांतिकारक, गोपनीय, समस्तभयनाशन,
विजयदायक एवम् निखिल संपत्तिप्रदायक कवच को सूनेगा या पढेगा,
उसकी सकल कामनायें सफल होंगी।
चौरैर्हृतं यदा
पश्येत्पश्वादिधनमात्मनः ।। १२४ ।।
सप्तवारं तदा जप्येन्निशि
पश्चिमदिङ्मुखः ।
सप्तरात्रेण लभते नष्टद्रव्यं न
संशयः ।। १२५ ।।
जब चोर पशु,
धन आदि चुरा ले तब रात्रि में पश्चिम मुंह होकर सात बार इस कवच का
पाठ करे । सात रात ऐसा करने से अपहृत धन मिल जाता है, इसमें
संशय नहीं।
सप्तविंशतिधा जप्त्वा
प्राचीदिग्वदनः पुमान् ।
देवासुरनिभं चापि परचक्रं निवारयेत्
।। १२६ ।।
यदि मनुष्य पूरब मुँह होकर सत्ताईस
बार इसका पाठ करे तो वह देवासुर के समान भी शत्रुचक्र (संग्राम) निवारण (विजय) कर
सकता है।
विवादे कलहेघोरे पंचधा यः पठेदिदम्
।
विजयो जायते तस्य न कदाचित्पराजयः
।। १२७ ।।
विवाद तथा कलह में जो इसका पांच बार
पाठ करता है; उसकी विजय होती है, कभी भी
पराजय नहीं।
सर्वरोगप्रपीडासु त्रेधा वा पंचधा
पठेत् ।
स रोगमृत्युवेतालभूतप्रेतैर्न बाध्यते
।। १२८ ।।
जो सब प्रकार के रोगों में तथा
कष्टों में तीन बार या पांच बार इसका पाठ करता हो, उसे रोग, मृत्यु, बेताल,
भूत एवम प्रेतों का भय नहीं होता ।
सम्यग्द्वादशाधा रात्रौ
प्रजपेद्बंधमुक्तये ।
त्रिदिनान्निगडादूद्ध्वो मुच्यते
नात्र संशयः ।। १२९ ।।
बन्धनमोक्ष के लिये रात्रि में
अच्छी तरह बारह बार इसका पाठ करना चाहिए। तीन दिन ऐसा करने से अवश्य बन्धन से
छुटकारा मिल जाता है।
अनेनैव विधानेन सर्वसाधनकर्मणि ।
असाध्यमपि
सप्ताहात्साधयेन्मंत्रवित्तमः ।। १३० ।।
समस्त साधनाओं में इसी प्रकार करना
चाहिए। उत्तम मन्त्रवेत्ता व्यक्ति ऐसा करके एक ही सप्ताह में असाध्य वस्तु को भी
सिद्ध कर सकता है।
यात्राकाले पठित्वेदं मार्गे गच्छति
यः पुमान् ।
न दुष्टचौरव्याघ्राद्यैर्भयं
स्यात्परिपंथिभिः ।। १३१ ।।
जो मनुष्य यात्राकाल में इसका पाठ
करके प्रयाण करता है, उसे दूष्ट, चोर, शुत्र एवम् व्याघ्र आदि का भय नहीं होता।
जपन्नासेचनं कुर्वञ्जलेनांजलिना तनौ
।
न चासौ विषकृत्यादिरोगस्फोटैः
प्रबाध्यते ।। १३२ ।।
इस कवच को पढ कर अंजलि के जल से
शरीर को सिक्त करे। ऐसा करने से विष, कृत्या
तथा फोड़े आदि रोग नहीं होते।
श्री कार्तवीर्य कवचं
श्री कार्तवीर्य द्वादशनाम
कार्तवीर्यः खलद्वेषी कृतवीर्यसुतो
बली ।
सहस्रबाहुः शत्रुघ्नो रक्तवासा
धनुर्धरः ।। १३३ ।।
रक्तगंधोरक्तमाल्यो राजा
स्मर्तुरभीष्टदः ।
द्वादशैतानि नामानि कार्तवीर्यस्य
यः पठेत् ।। १३४ ।।
संपदस्तस्य जायंते जनास्तस्य वशे
सदा ।
कार्तवीर्य,
दुष्टद्वेषी, कृतवीर्यसुत, बलो, सहस्रबाहु, शत्रुघ्न,
रक्तवासा, धनुर्धर, रक्तगंध,
रक्तमाल्य, राजा तथा स्मरण करने वालो को
अभीष्टदायक इन बारह नामों का जो पाठ करता है, उसे धन-संपत्ति
मिलती है तथा जनता वशीभूत होती है।
यः सेवते सदा विप्र
श्रीमच्चचक्रावतारकम् ।। १३५ ।।
तस्य रक्षां सदा कुर्याच्चक्रं
विष्णोर्महात्मनः ।
मयैतत्कवचं विप्र
दत्तात्रेयान्मुनीश्वरात् ।। १३६ ।।
श्रुतं तुभ्यं निगदितं
धारयस्वाखिलेष्टदम् ।। १३७ ।।
विप्र ! जो व्यक्ति सदा श्रीमान्
कार्तवीर्य का सेवन करता है, उसकी रक्षा
महात्मा विष्णु का चक्र सदा करता है । द्विज ! मैंने इस कवच को मुनीश्वर
दत्तात्रेय से सुना था, जिसे तुम्हें बतला दिया। तुम भी इस
सकल- कामनादायक कवच का धारण करो ।
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे
पूर्वभागे बृहदुपाख्याने तृतीयपादे कार्तवीर्यकवचकथनं नाम सप्तसप्ततितोमोऽध्यायः
।। ७७ ।।
श्रीनारदीय पुराण के पूर्वार्ध में वृहदुपाख्यान युक्त तृतीयपाद में कार्तवीर्यकवच कथन नामक सतहत्तरवां अध्याय समाप्त ॥ ७७ ॥

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