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अर्धनारीश्वरस्तोत्र

अर्धनारीश्वरस्तोत्र

श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिता के पूर्वखण्ड में शिवशिवा स्तुति वर्णन नामक १५वें  अध्याय में वर्णित ब्रह्माजी प्रणित अर्धनारीश्वरस्तोत्र का भक्तिभाव से जिस किसी भी वस्तु की कामना से इसका पाठ करने से सर्वमनोरथ पूर्ण होता है ।

अर्धनारीश्वरस्तोत्र

अर्धनारीश्वरस्तोत्रम्

ArdhaNarishvar stotram

अर्धनारीश्वर स्तोत्रं

अर्धनारीश्वर स्तोत्र

अर्ध नारीश्वर स्तोत्र

ब्रह्मोवाच ।

जय देव महादेव जयेश्वर महेश्वर ।

जय सर्वगुण श्रेष्ठ जय सर्वसुराधिप ॥ १६ ॥

ब्रह्माजी बोले- हे देव ! आपकी जय हो, हे महादेव! आपकी जय हो । हे ईश्वर ! हे महेश्वर ! आपकी जय हो, सर्वगुणश्रेष्ठ ! आपकी जय हो, हे सभी देवताओंके अधीश्वर ! आपकी जय हो 

जय प्रकृति कल्याणि जय प्रकृतिनायिके ।

जय प्रकृतिदूरे त्वं जय प्रकृतिसुन्दरि ॥ १७ ॥

प्रकृतिकल्याणि ! आपकी जय हो, हे प्रकृतिनायिके! आपकी जय हो। हे प्रकृतिदूरे ! आपकी जय हो, हे प्रकृतिसुन्दरि ! आपकी जय हो 

जयामोघमहामाय जयामोघ मनोरथ ।

जयामोघमहालील जयामोघमहाबल ॥ १८ ॥

हे अमोघ महामायावाले ! आपकी जय हो, हे अमोघ मनोरथवाले ! आपकी जय हो । हे अमोघ महालीला करनेवाले ! आपकी जय हो । हे अमोघ महाबलवाले! आपकी जय हो ।

जय विश्वजगन्मातर्जय विश्वजगन्मये ।

जय विश्वजगद्धात्रि जय विश्वजगत्सखि ॥ १९ ॥

हे विश्वजगन्मातः ! आपकी जय हो, हे विश्वजगन्मयि ! आपकी जय हो । हे विश्वजगद्धात्रि! आपकी जय हो, हे विश्वजगत्सखि ! आपकी जय हो।

जय शाश्वतिकैश्वर्ये जय शाश्वतिकालय ।

जय शाश्वतिकाकार जय शाश्वतिकानुग ॥ २० ॥

हे शाश्वत ऐश्वर्यवाले ! आपकी जय हो । हे शाश्वतस्थानवाले ! आपकी जय हो, हे शाश्वत आकारवाले ! आपकी जय हो । हे शाश्वत अनुगमन किये जानेवाले! आपकी जय हो 

जयात्मत्रयनिर्मात्रि जयात्मत्रयपालिनि ।

जयात्मत्रयसंहर्त्रि जयात्मत्रयनायिके ॥ २१ ॥  

[ ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वररूप] तीनों आत्माओं का निर्माण करनेवाली ! आपकी जय हो, तीनों आत्माओं का पालन करनेवाली! आपकी जय हो, तीनों आत्माओं का संहार करनेवाली! आपकी जय हो, तीनों आत्माओं की नायिकारूपिणि! आपकी जय हो ।

जयावलोकनायत्तजगत्कारणबृंहण ।

जयोपेक्षाकटाक्षोत्थहुतभुग्भुक्तभौतिक ॥ २२ ॥

अपने अवलोकनमात्र से जगत् कार्य के कारणभूत [अव्यक्तादि का] उपबृंहण (विस्तार) करनेवाले ! आपकी जय हो, उपेक्षापूर्वक अपने कटाक्षों से उत्पन्न अग्नि द्वारा [ प्रलयकाल में] समस्त भौतिक पदार्थों को भस्म करनेवाले ! आपकी जय हो 

जय देवाद्यविज्ञेये स्वात्मसूक्ष्मदृशोज्ज्वले ।

जय स्थूलात्मशक्त्येशेजय व्याप्तचराचरे ॥ २३ ॥

हे देवता आदि से भी ज्ञात न होनेवाली ! आत्मतत्त्व के सूक्ष्म विज्ञान से प्रकाशित होनेवाली ! आपकी जय हो । हे स्थूल आत्मशक्ति से जगत् ‌को नियन्त्रित करनेवाली! आपकी जय हो । हे [ अपने स्वरूप से ] चराचर को व्याप्त करनेवाली ! आपकी जय हो 

जय नामैकविन्यस्तविश्वतत्त्वसमुच्चय ।

जयासुरशिरोनिष्ठश्रेष्ठानुगकदंबक ॥ २४ ॥

सारे ब्रह्माण्ड के तत्त्वसमुच्चय को अनेक तथा एक रूप होकर धारण करनेवाले ! आपकी जय हो । असुरों के मस्तकों पर [मानो] आरूढ़ हुए उत्तम भक्तवृन्दवाले ! आपकी जय हो।

जयोपाश्रितसंरक्षासंविधानपटीयसि ।

जयोन्मूलितसंसारविषवृक्षांकुरोद्गमे ॥ २५ ॥

अपनी उपासना करनेवाले भक्तों की रक्षा में अतिशय सामर्थ्यवाली ! आपकी जय हो । संसाररूपी विषवृक्ष के उगनेवाले अंकुरों का उन्मूलन करनेवाली ! आपकी जय हो 

जय प्रादेशिकैश्वर्यवीर्यशौर्यविजृंभण ।

जय विश्वबहिर्भूत निरस्तपरवैभव ॥ २६ ॥

अपने भक्तजनों के ऐश्वर्य, वीर्य तथा शौर्य को विकसित करनेवाले! आपकी जय हो । विश्व से बहिर्भूत तथा अपने वैभव से दूसरों के वैभवों को तिरस्कृत करनेवाले ! आपकी जय हो।

जय प्रणीतपञ्चार्थप्रयोगपरमामृत ।

जय पञ्चार्थविज्ञानसुधास्तोत्रस्वरूपिणि ॥ २७ ॥

पंचविध मोक्षरूप पुरुषार्थ के प्रयोग द्वारा परमानन्दमय अमृत की प्राप्ति करानेवाले ! आपकी जय हो। पंचविध पुरुषार्थ के विज्ञानरूपी अमृत की स्रोतस्वरूपिणि! आपकी जय हो 

जयति घोरसंसारमहारोगभिषग्वर ।

जयानादिमलाज्ञानतमःपटलचंद्रिके ॥ २८ ॥

अत्यन्त घोर संसाररूपी महारोग को दूर करनेवाले श्रेष्ठ वैद्य ! आपकी जय हो । अनादिकाल से होने वाले पाप-अज्ञानरूपी अन्धकार को हरण करने के लिये चन्द्रिकारूपिणि! आपकी जय हो ।

जय त्रिपुरकालाग्ने जय त्रिपुरभैरवि ।

जय त्रिगुणनिर्मुक्ते जय त्रिगुणमर्दिनि ॥ २९ ॥

हे त्रिपुर का विनाश करने के लिये कालाग्निस्वरूप ! आपकी जय हो । हे त्रिपुरभैरवि ! आपकी जय हो । हे त्रिगुणनिर्मुक्ते ! आपकी जय हो, हे त्रिगुणमर्दिनि ! आपकी जय हो 

जय प्रथमसर्वज्ञ जय सर्वप्रबोधिक ।

जय प्रचुरदिव्यांग जय प्रार्थितदायिनि ॥ ३० ॥

हे आदि सर्वज्ञ! आपकी जय हो, हे सर्वप्रबोधिके ! आपकी जय हो, आपकी जय हो । हे अत्यन्त मनोहर अंगोंवाले! आपकी जय हो, हे प्रार्थित वस्तु प्रदान करनेवाली ! आपकी जय हो 

क्व देव ते परं धाम क्व च तुच्छं च नो वचः ।

तथापि भगवन् भक्त्या प्रलपंतं क्षमस्व माम् ॥ ३१ ॥

हे देव! कहाँ आपका उत्कृष्ट धाम और कहाँ हमारी तुच्छ वाणी, फिर भी हे भगवन् ! भक्ति से प्रलाप करते हुए मुझको क्षमा करें ।

अर्धनारीश्वरस्तोत्रम् महात्म्य

विज्ञाप्यैवंविधैः सूक्तैर्विश्वकर्मा चतुर्मुखः ।

नमश्चकार रुद्राय रद्राण्यै च मुहुर्मुहुः ॥ ३२ ॥

विश्व विधाता चतुर्मुख ब्रह्मा ने इस प्रकार के सूक्तों से प्रार्थना करके रुद्र तथा रुद्राणी को बारंबार नमस्कार किया 

इदं स्तोत्रवरं पुण्यं ब्रह्मणा समुदीरितम् ।

अर्धनारीश्वरं नाम शिवयोर्हर्षवर्धनम् ॥ ३३ ॥

ब्रह्माजी द्वारा कथित अर्धनारीश्वर नामक यह श्रेष्ठ स्तोत्र पुण्य देनेवाला है और शिव तथा पार्वती के हर्ष को बढ़ानेवाला है ।

य इदं कीर्तयेद्भक्त्या यस्य कस्यापि शिक्षया ।

स तत्फलमवाप्नोति शिवयोः प्रीतिकारणात् ॥ ३४ ॥

जो कोई भक्तिभाव से जिस किसी भी वस्तु की कामना से इसका पाठ करता है, वह शिव एवं पार्वती को प्रसन्न करने के कारण उस फल को प्राप्त कर लेता है ।

सकलभुवनभूतभावनाभ्यां जननविनाशविहीनविग्रहाभ्याम् ।

नरवरयुवतीवपुर्धराभ्यां सततमहं प्रणतोस्मि शंकराभ्याम् ॥ ३५ ॥

समस्त भुवनों के प्राणियों को उत्पन्न करनेवाले, जन्म और मृत्यु से रहित विग्रहवाले, श्रेष्ठ नर और नारी का देह धारण करनेवाले शिव और शिवा को मैं निरन्तर प्रणाम करता हूँ 

॥ इति श्रीशिवमहापुराणे वायवीयसंहितायां पूर्वभागे अर्धनारीश्वरस्तोत्रं नाम पञ्चदशाध्याये सम्पूर्णम् ॥

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