बृहस्पति चालीसा
बृहस्पति को गुरु भी कहा जाता है।
वे देवताओं के गुरु हैं। उनका वाहन ऐरावत है, जो चार दाँतों वाला एक सफ़ेद हाथी है। यह सौरमंडल का सबसे बड़ा ग्रह भी
है। बृहस्पति प्रत्येक राशि में एक वर्ष तक रहता है। इसलिए, एक
राशि चक्र पूरा करने में उसे 12 वर्ष लगते हैं। बृहस्पति बुद्धि और ज्ञान का ग्रह
है। श्री बृहस्पति चालीसा बृहस्पति ग्रह की कृपा प्राप्त करने और जीवन में शुभता
लाने का एक विशेष स्तोत्र है। बृहस्पति देव ज्ञान, बुद्धि और
सुख-समृद्धि के दाता माने जाते हैं। उनकी पूजा से जीवन में सफलता, मानसिक शांति और वैवाहिक सुख की प्राप्ति होती है।
बृहस्पति चालीसा का पाठ करने के
क्या लाभ हैं?
बृहस्पति चालीसा का नियमित
पाठ करने से बृहस्पति देव की कृपा से व्यक्ति को विद्या और बुद्धि, धन, समृद्धि,
सुखद वैवाहिक जीवन, संतान सुख, मानसिक और शारीरिक रोग निवारण, बृहस्पति दोष और
कुंडली के अन्य ग्रह दोष शांत होते हैं।
बृहस्पति चालीसा का पाठ किस दिन और
किस समय करना सबसे शुभ माना जाता है?
बृहस्पति चालीसा का पाठ पीले वस्त्र
स्वच्छ वस्त्र पहनकर और पीले आसन अथवा कुशासन में बैठकर सूर्योदय के समय
बृहस्पतिवार के दिन से प्रारंभ करना सर्वोत्तम है। चालीसा का पाठ करने से पूर्व बृहस्पति
देव का पूजन करें। पूजा स्थल को स्वच्छ करें और बृहस्पति देव का चित्र या यंत्र
स्थापित करें। शुद्ध घी का दीपक जलाकर पूजन प्रारंभ करें। पीले फूल, पीले वस्त्र,
हल्दी, चने की दाल, और गुड़ अर्पित करें। संभव हो तो
श्री बृहस्पति देव के बीज मंत्र:
"ॐ ग्रां ग्रीं ग्रौं सः गुरवे
नमः।"
अथवा
बृहस्पति गायत्री मंत्र:
"ॐ सुराचार्य विद्महे सुरश्रेष्ठाय
धीमहि, तन्नो गुरुः प्रचोदयात् ।"
अथवा
"ॐ बृं बृहस्पतये नमः।" अथवा
अधिदेवता मंत्र: "ॐ वाचस्पतये नमः।" मंत्र का जाप 108 बार करें। श्रद्धा
और भक्ति से श्री गुरु बृहस्पति देव चालीसा का पाठ करें। चालीसा का पाठ व पूजा
समाप्ति पर प्रसाद वितरित करें और गरीबों को दान दें।
श्री बृहस्पति देव चालीसा
Brihaspati Chalisa
श्री गुरु बृहस्पति देव चालीसा
॥ श्री गुरु बृहस्पति देव चालीसा ॥
॥ दोहा ॥
गाउे नित मंगलाचरण,
गणपति मेरे नाथ ।
करो कृपा माँ शारदा,
जीव रहें मेरे साथ ॥
॥ चौपाई ॥
वीर देव भक्तन हितकारी ।
सुर नर मुनिजन के उद्धारी ।
वाचस्पति सुर गुरू पुरोहित ।
कमलासन बृहस्पति विराजित ॥
स्वर्ण दंड वर मुद्रा धारी ।
पात्र माल शोभित भुज चारी ।
है स्वर्णिम आवास तुम्हारा ।
पीत वदन देवों में न्यारा ॥
स्वर्णारथ प्रभु अति ही सुखकर ।
पाण्डुर वर्ण अश्व चले जुतकर ।
स्वर्ण मुकुट पीताम्बर धारी ।
अंगिरा नन्दन गगन विहारी ॥
अज अगम्य अविनाशी स्वामी ।
अनन्त वरिष्ठ सर्वज्ञ नामी ।
श्रीमत् धर्म रूप धन दाता ।
शरणागत सर्वापद् त्राता ॥
पुष्य नाथ ब्रह्म विद्या विशारद ।
गुण बरने सुर गण मुनि नारद ।
कठिन तप प्रभास में कीन्हा ।
शंकर प्रसन्न हो वर दीन्हा ॥
देव गुरू ग्रह पति कहाओ ।
निर्मल मति वाचस्पति पाओ ।
असुर बने सुर यज्ञ विनाशक ।
करें सुरक्षित मन्त्र से सुर मख ॥
बनकर देवों के उपकारी ।
दैत्य विनाशे विघ्न निवारी ।
बृहस्पति धनु मीन के नायक ।
लोक द्विज नय बुद्धि प्रदायक ॥
मावस वीर वार ब्रत धारे ।
आश्रय दें सर्व पाप निवारें ।
पीताम्बर हल्दी पीला अन्न ।
शक्कर मधु पुखराज भू-लवण ॥
पुस्तक स्वर्ण अश्व दान कर ।
ददेवें जीव अनेक सुखद वर ।
विद्या सिन्धु स्वयं कहलाते ।
भक्तों को सन्मार्ग चलाते ॥
इन्द्र किया अपमान अकारण ।
विश्वरूपा गुरू किये धारण ।
बढ़ा कष्ट सब राज गँवाया ।
दानव ध्वज स्वर्ग लहराया ॥
क्षमा माँग फिर स्तुति कीन्ही ।
विपदा सकल जीव हर लीन्ही ।
बढ़ा देवों में मान तुम्हारा ।
कीरति गावें सकल संसारा ॥
दोष बिसार शरण में लीजै ।
उर आनन्द प्रभु भर दीजै ।
सदगुरू तेरी प्रबल माया ।
तेरा पारा ना कोई पाया ॥
सब तीर्थ गुरू चरण समाये ।
समझे विरला बहु सुख पाये ।
अमृत वारिद सदृश वाणी ।
हिरदय धार भए ब्रह्ज्ञानी ॥
शोभा मुख से बरनि न जाईं ।
देवें भक्ति जीव मनचाही ।
जो अनाथ ना कोइ सहाई ।
लख चोरासी पार कराहीं ॥
प्रथम गुरू का पूजन कीजे ।
गुरू चरणामृत रुच-रुच पीजै ।
मृग तृष्णा गुरू दरशन राखी ।
मिले मुक्ति हो सब जग साखी ॥
चरणन रज सतूगुरु सिर धारे ।
पा गए दास पदारथ सारे ।
जग के कार विहारण दोड़े ।
गुरू मोह के बन्धन तोड़े ॥
पारस माणिक नीलम रत्ना ।
गुरूवर सम्मुख व्यर्थ कल्पना ।
कर निष्काम भक्ति गुरुवर की ।
सुन्दर छवि धारे सुखकर की ॥
गुरू पताका जो फहारायें ।
मन क्रम वचन ध्यान से ध्यायें ।
काल रूप यम नहीं सतावें ।
निश्चय गुरुवर पिंड छुड़ावें ॥
भूत पिशाच्र निकट ना आवें ।
रोगी रोग मुक्त हो जावें ।
संतती हीन संस्तुति गावें ।
मंगल होय पुत्र धन पावें ॥
“मनु! गुण गाहिरदय
हर्षावे ।
स्नेह जीव चरणों में लावे ।
जीव चालीसा पढ़े पढ़ावे ।
पूर्ण शांति को पल में पावें ॥
॥ दोहा ॥
मात पिता के संग मनु,
गुरू चरण में लीन ।
किरपा सब पर कीजिये,
जान जगत में दीन ॥
॥ इति श्री बृहस्पति चालीसा ॥
बृहस्पतिजी की आरती
॥ आरती श्री बृहस्पति जी की ॥
ओम जय बृहस्पति देवा स्वामी जय बृहस्पति
देवा,
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओं तुम संतन की
सेवा ॥
ओंम... ॥
पारब्रम्ह परमेश्वर तुम मेरे स्वामी
।
ज्ञान जानू ध्यान जानू नित्य करत
सेवा ॥
ओम... ॥
तुम बिन और दूजा आस करूँ किस की ।
ब्रम्हा विष्णु सदाशिव गुरू व्रत
धारी ॥
ओंम... ॥
गुरूबिन ध्यान न होवे कोटि जतन कीजै
स्वामी ।
जय मोह विनाषक भय बन्धन हारी ॥
ओंम... ।
पारब्रम्ह परमेश्वर तुम सबके
प्राणपति स्वामी ।
बेद पुराण बखानत गुरू महिमा भारी ॥
ओंम... ।
बृहस्पति जी की आरती जो कोई गावे
स्वामी ।
दर्शन पावे जो कोई सन्त करे सेवा ॥
ओम जय बृहस्पति स्वामी ॥
॥ श्री बृहस्पति महाराज की जय ॥
ॐ श्रीगुरुवे नमः ॥
श्री बृहस्पति चालीसा व आरती समाप्त॥

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