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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
श्री विश्वकर्मा चालीसा व विश्वकर्माष्टकम्
श्री विश्वकर्मा आदि देव है,इनके पूजन के संदर्भ में पुराणों मे उल्लेख मिलता है। इन्द्र द्वारा विश्वकर्मा जी की पूजा ब्रह्मवैवर्त पुराण, कृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय 47 के राधा-कृष्ण संवाद में उल्लेख आता है कि देवाधिदेव इन्द्र ने भी कलाधिपति विश्वकर्मा जी की आराधना एंव स्तुति की जिसका विवरण इस प्रकार हैः "श्री कृष्ण कहते है कि, हे परम सुदंरी। जिससे सभी प्रकार के पापों का विनाश होता है ऐसे पुण्य वृतान्त को सुन। हे सुन्दरी। जब विश्व रूप की ब्रह्म हत्या से मुक्त होकर इन्द्र पुनः स्वर्ग में आया तो सब देवों को अत्यतं आनंद हुआ। इन्द्र अपनी पुरी में पूरे सौ वर्ष के बाद आये थे उनके सत्कारार्थ विश्वकर्मा जी ने अमरावती नामक पुरी का निर्माण किया था जो कि नौ-नौ प्रकार की मणियों और रत्नों से सुसज्जित थी। इस अत्यंत सुंदर नगरी को देखकर इन्द्र अति प्रसन्न हुए। उन्होंने विश्वकर्मा जी का आदर सत्कार किया, उनकी पूजा की, अराधना की एंव उनकी स्तुति की। इन्द्र ने कहा, हे विश्वकर्मा। मुझे आशीर्वाद दो कि मैं इस पुरी में वास कर सकूं।"
श्री विश्वकर्मा चालीसा व विश्वकर्माष्टकम्
श्री विश्वकर्मा चालीसा
दोहा - श्री
विश्वकर्म प्रभु वन्दऊँ, चरणकमल धरिध्य़ान । श्री, शुभ, बल अरु शिल्पगुण, दीजै दया निधान ।।
जय श्री विश्वकर्म भगवाना । जय विश्वेश्वर कृपा निधाना ।।
शिल्पाचार्य परम उपकारी । भुवना-पुत्र नाम छविकारी ।।
अष्टमबसु प्रभास-सुत नागर । शिल्पज्ञान जग कियउ उजागर ।।
अद्रभुत सकल सुष्टि के कर्त्ता । सत्य ज्ञान श्रुति जग हित धर्त्ता ।।
अतुल तेज तुम्हतो जग माहीं । कोइ विश्व मँह जानत नाही ।।
विश्व सृष्टि-कर्त्ता विश्वेशा । अद्रभुत वरण विराज सुवेशा ।।
एकानन पंचानन राजे । द्विभुज चतुर्भुज दशभुज साजे ।।
चक्रसुदर्शन धारण कीन्हे । वारि कमण्डल वर कर लीन्हे ।।
शिल्पशास्त्र अरु शंख अनूपा । सोहत सूत्र माप अनुरूपा ।।
धमुष वाण अरू त्रिशूल सोहे । नौवें हाथ कमल मन मोहे ।।
दसवाँ हस्त बरद जग हेतू । अति भव सिंधु माँहि वर सेतू ।।
सूरज तेज हरण तुम कियऊ । अस्त्र शस्त्र जिससे निरमयऊ ।।
चक्र शक्ति अरू त्रिशूल एका । दण्ड पालकी शस्त्र अनेका ।।
विष्णुहिं चक्र शुल शंकरहीं । अजहिं शक्ति दण्ड यमराजहीं ।।
इंद्रहिं वज्र व वरूणहिं पाशा । तुम सबकी पूरण की आशा ।।
भाँति – भाँति के अस्त्र रचाये । सतपथ को प्रभु सदा बचाये ।।
अमृत घट के तुम निर्माता । साधु संत भक्तन सुर त्राता ।।
लौह काष्ट ताम्र पाषाना । स्वर्ण शिल्प के परम सजाना ।।
विद्युत अग्नि पवन भू वारी । इनसे अद् भुत काज सवारी ।।
खान पान हित भाजन नाना । भवन विभिषत विविध विधाना ।।
विविध व्सत हित यत्रं अपारा । विरचेहु तुम समस्त संसारा ।।
द्रव्य सुगंधित सुमन अनेका । विविध महा औषधि सविवेका ।।
शंभु विरंचि विष्णु सुरपाला । वरुण कुबेर अग्नि यमकाला ।।
तुम्हरे ढिग सब मिलकर गयऊ । करि प्रमाण पुनि अस्तुति ठयऊ ।।
भे आतुर प्रभु लखि सुर–शोका । कियउ काज सब भये अशोका ।।
अद् भुत रचे यान मनहारी । जल-थल-गगन माँहि-समचारी ।।
शिव अरु विश्वकर्म प्रभु माँही । विज्ञान कह अतंर नाही ।।
बरनै कौन स्वरुप तुम्हारा । सकल सृष्टि है तव विस्तारा ।।
रचेत विश्व हित त्रिविध शरीरा । तुम बिन हरै कौन भव हारी ।।
मंगल-मूल भगत भय हारी । शोक रहित त्रैलोक विहारी ।।
चारो युग परपात तुम्हारा । अहै प्रसिद्ध विश्व उजियारा ।।
ऋद्धि सिद्धि के तुम वर दाता । वर विज्ञान वेद के ज्ञाता ।।
मनु मय त्वष्टा शिल्पी तक्षा । सबकी नित करतें हैं रक्षा ।।
पंच पुत्र नित जग हित धर्मा । हवै निष्काम करै निज कर्मा ।।
प्रभु तुम सम कृपाल नहिं कोई । विपदा हरै जगत मँह जोइ ।।
जै जै जै भौवन विश्वकर्मा । करहु कृपा गुरुदेव सुधर्मा ।।
इक सौ आठ जाप कर जोई । छीजै विपति महा सुख होई ।।
पढाहि जो विश्वकर्म-चालीसा । होय सिद्ध साक्षी गौरीशा ।।
विश्व विश्वकर्मा प्रभु मेरे । हो प्रसन्न हम बालक तेरे ।।
मैं हूँ सदा उमापति चेरा । सदा करो प्रभु मन मँह डेरा ।।
दोहा - करहु कृपा शंकर सरिस, विश्वकर्मा शिवरुप । श्री शुभदा रचना सहित,
ह्रदय बसहु सुरभुप
।।
इतिश्री विश्वकर्मा चालीसा सम्पूर्णम् ।
श्री विश्वकर्मा चालीसा व विश्वकर्माष्टकम्
॥ विश्वकर्माष्टकम् ॥
निरञ्जनो निराकारः निर्विकल्पो मनोहरः । निरामयो निजानन्दः निर्विघ्नाय नमो नमः ॥ १॥
अनादिरप्रमेयश्च अरूपश्च जयाजयः । लोकरूपो जगन्नाथः विश्वकर्मन्नमो नमः ॥ २॥
नमो विश्वविहाराय नमो विश्वविहारिणे । नमो विश्वविधाताय नमस्ते विश्वकर्मणे ॥ ३॥
नमस्ते विश्वरूपाय विश्वभूताय ते नमः । नमो विश्वात्मभूथात्मन् विश्वकर्मन्नमोऽस्तु ते ॥ ४॥
विश्वायुर्विश्वकर्मा च विश्वमूर्तिः परात्परः । विश्वनाथः पिता चैव विश्वकर्मन्नमोऽस्तु ते ॥ ५॥
विश्वमङ्गलमाङ्गल्यः विश्वविद्याविनोदितः । विश्वसञ्चारशाली च विश्वकर्मन्नमोऽस्तु ते ॥ ६॥
विश्वैकविधवृक्षश्च विश्वशाखा महाविधः । शाखोपशाखाश्च तथा तद्वृक्षो विश्वकर्मणः ॥ ७॥
तद्वृक्षः फलसम्पूर्णः अक्षोभ्यश्च परात्परः । अनुपमानो ब्रह्माण्डः बीजमोङ्कारमेव च ॥ ८॥ ।
इति विश्वकर्माष्टकं सम्पूर्णम् ।
श्री विश्वकर्मा चालीसा व विश्वकर्माष्टकम्
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