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मूल शांति पूजन विधि
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
श्रीदेवीरहस्य पटल ११
रुद्रयामलतन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्यम्
के पटल ११ में मन्त्रों के पुरश्चरण अंतर्गत हवन विधि के विषय में बतलाया गया है।
रुद्रयामलतन्त्रोक्तं श्रीदेवीरहस्यम् एकादशः पटलः पुरश्चर्या-होमविधिः
Shri Devi Rahasya Patal 11
रुद्रयामलतन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य ग्यारहवाँ पटल
रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्यम्
एकादश पटल
श्रीदेवीरहस्य पटल ११ पुरश्चरण हवन की विधि
अथैकादशः पटलः
श्रीभैरव उवाच
अधुना देवि वक्ष्येऽहं
पुरश्चर्याफलं परम् ।
यं लब्ध्वा साधको देवि
मत्योंऽप्यमरतां लभेत् ॥ १ ॥
श्री भैरव ने कहा कि हे देवि! अब
मैं पुरश्चरण के फल का वर्णन करता हूँ, जिस
फल को प्राप्त करके साधक मर्त्य होने पर भी अमरता प्राप्त करता है। । १ ।
श्रीदेव्युवाच
भगवंस्तत्त्ववेत्ता त्वं सकलागमपारगः
।
पुरश्चरणहोमस्य वद मेऽद्य विधिं
विभो ॥ २ ॥
श्री देवी ने कहा कि हे भगवन्! आप तत्त्ववेत्ता
हैं। सभी आगमों के पारगामी हैं। अब मुझे पुरश्चरण के हवन की विधि बतलावें ।। २ ।।
श्रीदेवीरहस्य पटल ११-पुरश्चरणहोमविधिः
श्रीभैरव उवाच
जप्त्वा मनुं लक्षसंख्यं साधको
मन्त्रसाधकः ।
गत्वा रहः स्थलं देवि होमं कुर्याद्
दशांशतः ॥ ३॥
श्री भैरव ने कहा कि हे देवि!
मन्त्रसाधक एक लाख मन्त्र जप करने के पश्चात् रहने के स्थान में जाकर जप का दशांश
दस हजार हवन करे ।।३।।
श्रीचक्र पूजा कुण्डपरिमिति तत्पूजा
च
सुदिने शुभनक्षत्रे साधको
भैरवार्चने ।
गृहीत्वा होमसम्भारं व्रजेत्
प्रयतमानसः ॥४॥
तत्रैकतः श्मशानं तु धृत्वा
सम्मुखपृष्ठयोः ।
ऐशान्यां दिशि देवेशि
लिखेच्छ्रीचक्रमुत्तमम् ॥५॥
तत्समभ्यर्च्य विधिना श्रीचक्रं
मूलविद्यया ।
ततो मन्त्रं जपेत्
सिद्धमष्टोत्तरशतावधि ॥ ६ ॥
पूर्वस्यां दिशि सद्यन्त्रात् खनेत्
कुण्डं त्रिकोणकम् ।
हस्तैकविस्तृतं चाधो हस्तैकपरिमाणतः
॥७॥
शुभ दिन,
शुभ नक्षत्र में साधक भैरवार्चन की हवन सामग्री लेकर यत्नपूर्वक
श्मशान में जाये। श्मशान के ईशान दिशा में श्रीचक्र का अंकन करे। श्रीचक्र का पूजन
मूल विद्या से करके सिद्ध मन्त्र का जप एक सौ आठ बार करे। श्रीचक्र के पूर्व दिशा
में स्नान करके एक त्रिकोण कुण्ड का खनन करे। यह कुण्ड एक हाथ लम्बा और एक हाथ
गहरा होना चाहिये।।४-७।।
कुण्डेऽस्मिन् विलिखेद्यन्त्रं
त्र्यश्रं बिन्दुविराजितम् ।
षट्कोणमष्टपत्रं च त्रिवृत्तं
भूगृहाङ्कितम् ॥८ ॥
ततः पूजां चरेद् देवि कुण्डचक्रस्य
पार्वति ।
यथोक्तविधिना येन साधको दीक्षितो
भवेत् ॥ ९ ॥
इस त्रिकोण कुण्ड में त्रिकोण बनाकर उसके मध्य में बिन्दु का अंकन करे। उसके बाहर षट्कोण, अष्टदल, तीन वृत्त और भूपुर बनावे। हे पार्वति! उस कुण्डचक्र में साधक अपनी दीक्षाविधि के अनुसार पूजन करे।।८-९ ।।
गणेशधर्मवरुणाः कुबेरसहितास्तथा ।
चतुद्वरिषु सम्पूज्याश्चत्वारो द्वारपालकाः
॥ १० ॥
भूपूर के चारों द्वारों पर पूर्वादि
क्रम से दक्षिणावर्त रूप से गणेश, यम, वरुण और कुबेर की पूजा करे। पूजन मन्त्र है- गं गणेशाय नमः। यं यमाय नमः।
वं वरुणाय नमः। कुं कुबेराय नमः ।। १० ।।
माया च मोहिनी मत्ता माध्वी
वह्निवल्लभा ।
वर्तुली वीरसूर्वाम्या पूज्या
अष्टदलस्थिताः ॥ ११ ॥
अष्टदल में माया,
मोहिनी, मत्ता, माधवी,
वह्निवल्लभा वार्ताली, वीरसू, वाम्या का पूजन करे। मां मायायै नमः। मो मोहिन्यै नमः। मं मत्तायै नमः। मां
माधव्यै नमः । वं वह्निवल्लभायै नमः। वां वार्ताल्यै नमः । वीं वीरसुवे नमः । वां
वाम्यायै नमः ।। ११ ।।
अम्बालिकाम्बा बगला
च्छिन्नशीर्षाम्बिका भगा ।
षट्कोणमध्यगाः पूज्याः कुण्डचक्रे
महेश्वरि ॥१२॥
षट्कोण में अम्बालिका,
अम्बा, बगला, छिन्नशीर्षा,
अम्बिका और भगा का पूजन इस प्रकार करे ह्रीं अम्बालिकायै नमः। ह्रीं
अम्बायै नमः । ह्रीं बगलायै नमः । ह्रीं छित्रशीर्षायै नमः। ह्रीं अम्बिकायै नमः। ह्रीं
भगायै नमः ।। १२ ।।
वह्निं वैश्वानरं चाग्निं त्रिकोणे
पूजयेच्छिवे ।
स्वाहा भगवती बिन्दौ
जातवेदसमर्चयेत् ॥ १३ ॥
त्रिकोण में वह्नि,
वैश्वानर और अग्नि की पूजा करे। मन्त्र है - ॐ वह्नयै नमः । ॐ वैश्वानराय
नमः । ॐ अग्नये नमः । बिन्दु में स्वाहा और जातवेद का अर्चन करे। मन्त्र है - ॐ
स्वाहायै नमः । ॐ जातवेदसे नमः ।। १३ ।।
अग्निं मूलेन देवेशि वह्नेर्दशकलास्ततः
।
तारं वह्निः शिवोऽब्धिश्च हृज्जं
शक्तिर्महेश्वरि ।।१४।।
बिन्दु में ही अग्नि की दश कलाओं का
पूजन करें । पूजन मन्त्र है - १. यं धूम्रार्चिषे नमः २. रं ऊष्मायै नमः ३. लं
ज्वलिन्यै नमः ४. वं ज्वालिन्यै नमः ५. शं विष्फुलिङ्गिन्यै नमः ६. षं सुश्रियै
नमः ७. सं सुरूपायै नमः ८. हं कपिलायै नमः, ९.
ळं हव्यवाहिन्यै नमः एवं १०. क्षं कव्यवाहिन्यै नमः ।। १४ ।।
श्रीदेवीरहस्य पटल ११- अग्निपूजा
होमादिनिरूपणम्
अग्ने वैश्वानरं ब्रूयाज्जटाभारेति
संवदेत् ।
भास्वरेति त्रिनेत्रेति ज्वालामुख
पदं वदेत् ॥ १५ ॥
प्रज्वलेति युगं ब्रूयाज्जातवेदसि
संवदेत् ।
ठद्वयं संवदेदन्ते मन्त्रोऽयं
वह्निवल्लभः ॥ १६ ॥
अनेन मूलमन्त्रेण वह्निचक्रं
प्रपूजयेत् ।
गन्धाक्षतप्रसूनैश्च
धूपदीपादितर्पणैः ॥ १७ ॥
नैवेद्याचमनीयाद्यैस्ताम्बूलैश्च सुवासितैः
।
इसके बाद अग्नि देवता का पूजन करे। पूजन
मन्त्र है - ॐ रं गं रूं जं सौः अग्ने वैश्वानर जटाभार भास्वर त्रिनेत्र ज्वालामुख
प्रज्वल प्रज्वल जातवेद स्वाहा। इसी मन्त्र से वह्निचक्र का पूजन गन्ध-अक्षत,
पुष्प, धूप, दीप,
तर्पण, नैवेद्य, आचमनीयादि
सुवासित ताम्बूल से करे ।। १५-१७।।
तत्र सम्पूज्य देवेशि श्रीचक्रं
नवयोनिकम् ॥ १८ ॥
ततो दिग्भैरवान् भूतानर्चयेत्
कुसुमैः परम् ।
ततो देवि प्रमथ्याग्निं कुण्डचक्रे
कुलेश्वरि ॥ १९ ॥
बिन्दौ वह्निं समावाह्य
मूलेनोज्ज्वालयेच्छिवे ।
अग्निं सन्दीप्य मूलेन प्रणमेद्
वह्निमुद्रया ॥ २० ॥
मूलेनाहुतिभिर्वह्नि हुनेत्
षोडशभिस्ततः ।
अष्टोत्तरशतावृत्त्या दद्यादाज्येन पार्वति
॥ २१ ॥
इसके बाद पूजित नवयोनि श्रीचक्र में
आद दिग्भैरवों और भूतों का पूजन पुष्पों से करे। तब कुण्डचक्र के बिन्दु में अरणी
के मन्थन से प्रभूत अग्नि का पूजन पुष्पों से करे। बिन्दु में अग्नि को आवाहित
करके पूर्ववर्णित अग्निमन्त्र से प्रज्वलित करके वह्निमुद्रा से प्रणाम करे। तब
मूल अग्निमन्त्र से अग्नि को घृत की सोलह आहुतियाँ देकर अग्नि को गोघृत से एक सौ
आठ आहुतियाँ प्रदान करे।। १८-२१।।
आहुती: पायसैर्देवि
मृद्वीकागुरुपुष्पकैः ।
मत्स्यण्डशर्कराचन्द्रैः कस्तूरीदृषदङ्कितैः
॥ २२ ॥
ततो जप्त्वा महाविद्यां साधकान्
पूजयेच्छिवे ।
पञ्च वा नव वा देवि तथैकादश वा शिवे
॥२३॥
कुलीनान् धार्मिकाच्छुद्धान्
दीक्षितान् वाप्यदीक्षितान् ।
दृढव्रताञ्छुभाचारान् देवी
भक्तिरतांस्तथा ॥ २४ ॥
वैष्णवान् गिरिजे शैवान् गुरुभक्तिपरायणान्
।
तत्र सम्पूज्य विधिवज्ज्ञात्वा
भैरवसन्निभान् ॥ २५ ॥
पाद्यार्घ्यमधुपर्काद्यैर्गन्धाक्षतसुपुष्पकैः।
तान् सम्पूज्य महादेवि दशांशं
होममाचरेत् ॥ २६ ॥
इसके बाद पायस,
मृद्वीका, अगर, पुष्प,
मत्स्यण्ड, शक्कर, कपूर,
कस्तूरी को मिलाकर आहुतियाँ प्रदान करे। इसके बाद महाविद्या का जप
करे। तब पाँच या नव या ग्यारह कुलीन धार्मिक, शुद्ध, दीक्षित या अदीक्षित, दृढव्रती, शुभाचरण वाले, देवी- भक्ति में निरत, वैष्णव, गुरुभक्तिपरायण शैवों को भैरव मानकर उनका
विधिवत् पूजन पाद्य, अर्घ्य, मधुपर्क,
गन्ध, अक्षत से करे। उनकी पूजा करने के बाद
दशांश हवन करे ।। २२-२६।।
श्रीदेव्युवाच
भगवन् देवदेवेश तन्त्रज्ञ परमेश्वर
।
कुलसाधकपूजायां संशयं छेत्तुमर्हसि
॥ २७ ॥
तत्र पूजाविधौ नाथ सर्वे पूज्या
द्विजोत्तमाः ।
अथवा क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा वा
वद विस्तरात् ॥ २८ ॥
पूज्य कुलसाधक का निर्णय —
श्रीदेवी ने कहा- हे देवदेवेश भगवन्! तन्त्रज्ञ परमेश्वर कुलसाधक
पूजा के बारे में मेरे संशय का निवारण करे। इस पूजाविधि में सभी द्विजोत्तम ही
पूज्य है या क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी पूज्य हैं। इसके
विषय में विस्तार से कहिये ।। २७-२८ ।।
श्रीभैरव उवाच
प्रवृत्ते भैरवे तन्त्रे सर्वे
वर्णा द्विजोत्तमाः ।
निवृत्ते भैरवे तन्त्रे सर्वे
वर्णाः पृथक् पृथक् ॥ २९ ॥
सर्वदा शिवचक्रेऽस्मिन्
सम्प्रदायोऽयमीरितः ।
न पुरश्चरणार्चायां तत्र सर्वे
द्विजोत्तमाः ॥ ३० ॥
एकस्तु क्षत्रियः पुण्यो दाता
वैष्णवसत्तमः ।
दृढव्रतः शुभाचारः कुलीनः शिवपूजकः
॥ ३१ ॥
शाक्त: परमभक्तश्च कुलचक्रे
निगद्यते ।
तंत्र होमं च सम्पाद्य
दद्यान्नैवेद्यमादरात् ॥ ३२ ॥
श्री भैरव ने कहा कि भैरवतन्त्र में
सभी वर्णों के साधक द्विजोत्तम होते हैं। भैरवतन्त्र के बाहर सभी वर्ण अलग-अलग हो जाते
हैं। इस शिवचक्र को सम्प्रदाय कहा गया है, किन्तु
पुरश्चरणकाल में सभी को द्विजोत्तम माना जाता है। यहाँ पुण्य ही एक क्षत्रिय है,
जिसके दाता विष्णु ही उत्तम सत्त हैं। दृढव्रती शुभ आचार-निरत
शिवभक्त ही कुलीन है। कुलचक्र में शाक्त भक्त ही कुलीन होता है। हवन करके आदरसहित
इन्हें नैवेद्य देना चाहिये ।। २९-३२।।
कुलचक्रगतान् देवि ब्राह्मणान्
साधकोत्तमान् ।
पूजयेद् क्षत्रियो वीरो
भक्तिश्रद्धासमन्वितः ॥ ३३ ॥
गन्धाक्षतपुष्पैश्च धूपदीपादिभिः
शिवे ।
नैवेद्याचमनीयाद्यर्भक्ष्यैर्भोज्यैश्च
लेह्यकैः ॥३४॥
सन्तर्प्य साधकान् देवि
परमानन्दसेवितः ।
साधकः क्षत्रियं वीरं दातारं
वीरसेवकम् ॥ ३५ ॥
हे देवि! कुलचक्र में साधकोत्तम
ब्राह्मणों को भी क्षत्रिय वीर साधकों की पूजा श्रद्धा- भक्तिपूर्वक करनी चाहिये।
हे शिवे! इनका पूजन गन्ध-अक्षत-पुष्प-धूप-दीप नैवेद्य- आचमनीय तथा भोज्य लेह्य आदि
देकर करना चाहिये। परमानन्दयुक्त साधकों को संतृप्त करना चाहिये। क्षत्रिय वीर
साधक दाता होता है।। ३३-३५।।
श्रीदेवीरहस्य पटल ११- कुलसाधकपूजाफलम्
आशीर्भिर्वर्धयेद् देवि प्रणमेत्
त्रिपुराम्बिकाम् ।
कुलचक्रगता वीराः कुलचक्रप्रपूजकाः
॥ ३६ ॥
सर्वे ते कुलदेव्यन्ते यान्ति
शीघ्रं कुलालयम् ।
क्षत्रियोऽपि महादेवि कुलसङ्घान्
कुलार्थवित् ॥ ३७॥
सर्वपापविनिर्मुक्तः
सर्वसिद्धिसमन्वितः ।
इह लोके श्रियं प्राप्य भुक्त्वा
भोगान् यथेप्सितान् ॥ ३८ ॥
परत्र परमेशानि मृतो देवीपदं
व्रजेत् ।
एवं विधाय मन्त्रज्ञो होमं
जपफलाप्तये ।। ३९ ।।
पुरश्चर्याफलं देवि वर्णलक्षस्य सोऽश्नुते
।
वर्णलक्षजपस्यैवं फलमाप्नोति कौलिकः
॥ ४० ॥
सर्वे तत्र स्थिता नत्वा श्मशानस्थं
च भैरवम् ।
संहारमुद्रया देवीं विसृज्य सशिवां
शिवे ॥ ४१ ॥
सर्वे ते साधक श्रेष्ठा भवेयुः
कुलभागिनः ।
इदं रहस्यं देवेशि भक्त्या तव
मयोदितम् ।
अप्रकाश्यमदातव्यमित्याज्ञा पारमेश्वरी
॥४२॥
कुलसाधक पूजा फलनिरूपण -
कुलचक्र-प्रपूजकों को अम्बिका के कुलचक्र में कुलचक्रगत वीर साधकों के आशीर्वाद से
सभी प्रकार का अभ्युदय होता है। वे सभी प्रपूजक अन्त में देवी के कुलालय में जाते
हैं। कुलार्थ ज्ञाता क्षत्रिय भी महादेवी के कुलसङ्घ में जाता है। सभी पापों से
मुक्त होकर सभी सिद्धियों से समन्वित होकर इस संसार में वैभवयुक्त होकर यथोचित
भोगों को भोगता है और अन्त में मृत्यु होने पर देवीपद को प्राप्त करता है। अतः
जपफल की प्राप्ति के लिये मन्त्रज्ञ को इसी प्रकार का विधान अपनाना चाहिये। मन्त्र
के प्रत्येक वर्ण पर एक लाख जप के पुरश्चरण से जो फल प्राप्त होता है,
वह फल कौलिक को स्वतः प्राप्त होता है। कुलचक्रपूजन में उपस्थित
सबों को श्मशान भैरव को प्रणाम करना चाहिये। इसके बाद शिवसहित शिवा का संहारमुद्रा
से विसर्जन करना चाहिये। चक्र में भाग लेने वाले सभी साधक श्रेष्ठ हो जाते हैं। हे
देवि! तुम्हारी भक्ति के कारण इस रहस्य का उद्घाटन मेरे द्वारा किया गया। हे
परमेश्वरि! यह अप्रकाश्य और अदातव्य है ऐसी मेरी आज्ञा है ।। ३६-४२ ।।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये पुरश्चर्याहोम- विधिनिरूपणं नामैकादशः पटलः ॥ ११ ॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में पुरश्चर्या-होमविधिनिरूपण नामक एकादश पटल पूर्ण
हुआ।
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 12
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